गुरुवार, 5 नवंबर 2009

सीधे- सादे आदमी के घर एक अनजान मेहमान ,बेनामी की शाब्दिक पिटाई द्विवेदी जी और अशोक द्वारा


कल उड़न तश्तरी पर समीर भाई के सुभाषित का आनंद ले रहा था कि उनके एक सुभाषित पर नज़र पड़ी ..प्रशंसा और आलोचना में वही फर्क है जो सृजन और विंध्वस में अरे.. मैने कहा यह तो मेरे ब्लॉग के काम की चीज़ है । याद आया अभी पिछले दिनों मैने एक पोस्ट में महावीर अग्रवाल द्वारा लिये गये नामवर सिंह के साक्षात्कार का एक अंश प्रस्तुत किया था । पब्लिश होने के बाद जब मैने टिप्पणियाँ देखीं तो एक बेनामी टिप्पणी । मेरे तो हाथ पाँव फूल गये ,भई सीधे - सादे आदमी के घर एक अनजान आदमी मेहमान बन कर जबरन आ जाये तो उसकी हालत कैसी होगी बस वही मेरी हालत थी । सोचा टिप्पणी मॉडरेट कर दूँ.. अस्वीकार .. हाँलाकि यह बेनामी पढ़ा-लिखा तो दिखाई देता था और इस बहाने कई लोगो के मन मे उठ रहे प्रश्नों के जवाब भी दिये जा सकते थे । पसोपेश में था कि मुझे फोन ए फ्रैंड का विकल्प याद आया सोचा मित्र से सम्वाद कर पूछ लूँ , पता नहीं यहाँ की क्या परम्पराएँ हैं ? क्या पता किसी से गलती से बेनामी वाले बॉक्स मे टिक हो गया हो और वास्तव में वह जानकारी चाहता हो .. उसके प्रश्न देखने से तो ऐसा ही लगता था ...  
बेनामी ने कहा
मुझे तो बिहारी में बहुत रस दिखता है। लगता है मेरी रस की ग्रन्थि सही नहीं है। कुछ सवाल है महोदय.....
1
रस में डुबने के लिये तुलसी के पास जाना पड़ेगा से नामवर जी का क्या तात्पर्य है, क्या इस लोक को छोड़ना पड़ेगा ?
2
आलोचक क्या होता है ? 3. ये मार्क्सवादी आलोचना क्या है? अन्य किस किस तरही की वादी आलोचनायें होती हैं ।     
मैने मित्र अशोक कुमार पाण्डेय से सम्पर्क किया । वे टिप्पणी देकर जा चुके थे लेकिन मेरे आग्रह पर फिर लौटकर आये । लेकिन वहाँ देखा तो दिनेशराय द्विवेदी जी पहले ही उस बेनामी की तलाशी ले चुके थे और उसे साफ साफ हिन्दी में समझा चुके थे ..कुछ इस तरह ..
नामवर जी के उपरोक्त वक्तव्य से किसे आपत्ति हो सकती है? उन्हों ने जो कुछ कहा सच कहा। यूँ तो एक बात के अनेक अर्थ समझे जा सकते हैं। चाहें तो बेनामी जी ऊपर जाने के बजाय अपने पास के तुलसी के पौधे तक भी जा सकते हैं या फिर सीरियल वाली तुलसी तक भी। यहाँ तुलसी के पास जाने का अर्थ तुलसी साहित्य पढ़ने से है। मार्क्सवादी आलोचक से है मार्क्सवादी आलोचना से नहीं। खैर, जाकी रही भावना जैसी। वैसे उन की बात से असहमति हो तो यहाँ लिखा जा सकता है। आलोचना का महत्व इस बात से है कि अच्छी और बुरी दोनों तरह की आलोचना लोगों की कृतियों को अधिक पाठकों तक पहुँचाती है। लेकिन बहुत लोग आलोचकों को पसंद ही नहीं करते ।
मैने सोचा बेनामी पढ़ा लिखा भले न हो ,लिखा_पढ़ा , मतलब लेखक प्रजाति का होगा तो द्विवेदी जी की बात  समझ जायेगा , लेकिन अशोक जी ने इतनी गम्भीरता से यह समझाया था कि मुझे उन्हे प्रस्तुत करना ज़रूरी लगा , सो लीजिये आप भी पढ़िये बेनामी जी के सवाल के यह महत्वपूर्ण जवाब

वैसे तो बेनामी होकर की गयी बात को गंभीरता से लेने का जी नहीं करता। फिर भी चूंकि सवाल हैं और गम्भीर हैं तो जवाब देना ही है--

1]
अब आपकी रस ग्रन्थि के बारे में आप ही फ़ैसला कीजिए। आपने ख़ुद लिखा है कि बिहारी में आपको रस दिखाई देता है। तो यह नामवर जी से अलग क्या है? वह भी शुक्ल जी के हवाले से यही कह रहे हैं कि जिन्हें रस का आस्वादन नक्काशी की तरह (आशय ऊपरी सजावट से है) करना है उसके लिये निश्चित तौर पर बिहारी काफ़ी हैं। लेकिन रस का आस्वादन करना है, उसमें डूबना है उसे कविता के भीतर प्रवेश करना होगा। ऐसे में कविता की आत्मा उसके लिये एक आवश्यक संघटक तत्व है। एक ऐसा आंतरिक सौन्दर्य जो कविता को बहुअर्थी तो बनाता ही है, साथ ही अपने अंतस में एक ऐसा स्पेस बनाता है जहां तक पहुंच कर पाठक कविता के साथ एकाकार होता है। इसके लिये कविता की अपने समय और जन के साथ एक अनन्य सहानूभूति ज़रूरी है। यही विभेद कबीर या तुलसी से बिहारी को अलग करता है।

2)
अब आलोचक क्या होता है यह सवाल मुझे तो अजीब लगता है। फिर भी आलोचक अपने समय तथा समाज को समझने वाला ऐसा विशेषज्ञ होता है जो कविता को पुनर्प्रस्तुत करता है। वह अपने समय की कसौटी पर कविता को कसता है। लोग आलोचक को लेकर अक्सर कुछ ज़्यादा ही असहिष्णु होते हैं। अब अगर यह पूछा जाये कि बिहारी हों या कबीर या फिर तुलसी हों अगर उनके अध्येताओं ने आधुनिक समय में उनको फिर से पढकर पुनर्प्रस्तुत और पुनर्व्याख्यायित नहीं किया होता तो क्या केवल स्मृतियों और चन्द पाण्डुलिपियों के भरोसे उनको इस तरह समग्र में पढ पाना संभव होता?

3]
मार्क्सवादी आलोचना एक वैज्ञानिक पद्धति के सहारे कविता को समझने तथा व्याख्यायित करने का उन्नत औज़ार है। यह उस भौतिकवादी अवधारणा के आधार पर कविता की व्याख्या करती है जो जीवन की भाववादी अवधारणा को ख़ारिज़ करती है। यानि वह विचार जो मानता है कि कोई इश्वरीय प्रेरणा रचना नहीं करवाती और न ही कोई कवि बन कर पैदा होता है। एक आदमी अपने चतुर्दिक संसार के अनुभवों से सीखता है और इस सामाजिक संपत्ति , ज्ञान और परिवेश जनित संवेदना के सहारे अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया करता हैकविता उनमें से एक है। आप इस दर्शन की जडें भारतीय दर्शन की परम्परा में तलाश सकते हैं। यह पद्धति भी कविता को कलाकर्म ही मानती है लेकिन साथ ही वह कला के सामाजिक सरोकारों को भी मान्यता देती है।

उदाहरण दूं तो इस मानवविरोधी दौर में अगर एक गीत ऐसा लिखा जाये जो किसानों की आत्महत्या की बात का मज़ाक उडाये और खेती बारी के दुश्मनो की प्रशंसा के गीत गाये ( जैसे गुलामी के दौर में अंग्रेज़ों के समर्थन में लिखे गीत) तो मार्क्सवादी पद्धति का सही आलोचक उसको रेशा-रेशा खोलकर साबित करेगा कि यह गीत ख़ारिज़ करने योग्य है। इसके उलट आत्महत्याओ के संताप से आतुर जो गीत इस हालात को बदलने की बात करेगा उसे यह पद्धति आगे ले आयेगी।

अब मार्क्सवादी आलोचकों ने किया कि नहीं यह एक अलग बात है। इसे लेकर भी तमाम असहमतियां हैं मेरी।

रहा सवाल दूसरी पद्धतियों का तो भाई भाववादी आलोचना की भी एक पद्धति हैआप चाहें तो एक आह-वाह वादी आलोचना भी हैजनविरोधी और दक्षिणपंथी आलोचना पद्धति हैपर ये आपकी तरह बेनामी होके ही आना पसंद करते हैं। देखिये ना प्रतिबद्धता का मतलब मार्क्सवाद से प्रतिबद्धताओं को ही मान लिया जाता है। संघ के और दूसरी विचारधाराओं के हिमायती शायद केवल अवसरवाद से ही संबद्ध होते हैं प्रतिबद्धता से नहीं ।
तो अब तक उन बेनामी जी की समस्या का समाधान हो गया होगा इसलिये वे दोबारा नहीं आये लेकिन अलबेला भाई जाते जाते एक फुलझड़ी छोड़ ही गये ।
AlbelaKhatri.com ने कहा
साधुवाद इस उम्दा पोस्ट के लिए..........
वैसे कहना नहीं किसी से, अपनी आलोचकों से पटती नहीं है
अरे भाई प्रशंसक जो प्यारे लगते हैं..........हा हा हा
मैं क्या जवाब देता उनका यह गम्भीर मज़ाक हँसाने के लिये ही था सो हँस लिया फिर भी कुछ तो कहना ही था सो ..एकदम सीरियसली कहा ..
शरद कोकास ने कहा
@अलबेला भाई, आलोचना का अर्थ केवल निन्दा नहीं होता है ,प्रशंसा भी होता है ( विस्तार के लिये पढ़ें अशोक जी का जवाब  क्र. 2)  वैसे आप भी किसी से कहना नहीं ..लेखक लिखेगा ही नहीं तो आलोचक क्या खाक आलोचना करेगा ..हा हा हा ।

आप भी इसी परिप्रेक्ष्य में अपने मन में उठ रहे सवालों के उत्तर इस सम्वाद में ढूंढिये और अपनी पोस्ट पर मेरी टिप्पणियों का बुरा मत मानिये । कुल मिलाकर हम सभी का प्रयास यही है ना कि ब्लॉग जगत में स्तरीय साहित्य की प्रस्तुति करें । द्विवेदी जी, अशोक भाई ,समीर भाई , अलबेला भाई और अन्य सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापिता करते हुए  - आपका शरद कोकास

24 टिप्‍पणियां:

  1. आलोचना और समालोचना में फर्क बताईये !

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  2. @ अरविन्द जी आप ने आलोचना,समालोचना में भेद जानना चाहा है । आलोचना व समालोचना दोनो में मूलभूत कोई अंतर नहीं है । दोनों सैद्धांतिक,व्यावहारिक व विस्तृत होती हैं । सामान्यत: आलोचना का अर्थ केवल निन्दा से तथा समालोचना का अर्थ निन्दा व प्रशंसा दोनों से लिया जाता है लेकिन साहित्य में ऐसा नहीं है । आलोचना व समालोचना दोनो में निन्दा व प्रशंसा शामिल होती है । साहित्य में आलोचना शब्द ही प्रचलन में है । इसके अलावा समीक्षा सामान्यत: एक कृति की, एक अवसर (event) की, हो सकती है इसमें निहितार्थ को इंगित (point out) किया जा सकता है । व्याख्या से तात्पर्य विस्तारपूर्वक विश्लेषण से है यह एक ग्रंथ से लेकर एक पंक्ति तक की हो सकती है । वैसे आप विद्वान हैं ,इन शब्दों का अर्थ बखूबी जानते हैं यहाँ सिर्फ मेरी परीक्षा लेने के लिये यह पूछ रहे हैं ।

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  3. वैसे चलते चलते फित गहरा टिका गये महाराज: आलोचना का अर्थ केवल निन्दा नहीं होता है ,प्रशंसा भी होता है.

    निश्चित तौर पर यह सोचनीय है. आपको अगंभीरता से लेना अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा है भाई!! सच में..मजाक नहीं!

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  4. नये युग की परिभाषा:


    आलोचना: बिना मतलब आपके अच्छे लिखे को लथाड़ना.

    समलोचना: बमकसद आपके कैसे भी लेखन की तारीफ...

    संबंध आधार बनते हैं कि आलोचना हो या समालोचना.



    करेंट बात कर रहा हूँ कृप्या कहीं जोड़ कर न देखें....

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  5. कोकास भाई कहें अनर्थ कर /कह रहे हैं -आपके विवेचन ने भ्रम मिटा दिया ..
    मैं आपकी परीक्षा लूँगा ? जब भारद्वाज ने याज्ञवल्क से राम के बारे में जानना चाहा था तो क्या वे उनकी परीक्षा ले रहे थे ?
    यह विचार विनिमय क्या उसी परम्परा में बहुजन हिताय नहीं है?
    अब आप बताएं की अंगरेजी में जिसे पीयर रिव्यू (peer review)कहते हैं हिन्दी में उसका समानार्थी क्या है ?

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  6. माफ कीजिएगा, विषयांतर कर रहा हूं. चिट्ठे की भूरी पृष्ठभूमि तेज पठन (स्पीड रीडिंग) में बाधक है. कृपया श्वेत पर काला अक्षर ही रहने दें तो उत्तम

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  7. आलोचना, समालोचना, विवेचना, प्रतिक्रिया...
    सीधी बात कहना ही बेहतर है...
    बाकी दियां गला छड्डो, दिल साफ होणा चाहिदा...
    वैसे मूर्ख दोस्त से समझदार दुश्मन बेहतर माना जाता है...

    जय हिंद...

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  8. सचमुच इस नए आर्थिक युग में आलोचना का अर्थ ही परिवर्तित हो गया है .. 'निंदक नियरे राखिए , आंगन कुटी छवाय' की पुरानी धारणा घ्‍वस्‍त होती दिखती है .. पर अपने कर्म के प्रति गंभीर रहा जाए और आलोचनाओं से धैर्य न खोया जाए .. तो हर प्रकार की आलोचना से हम अपने को और सुधार पाने में कामयाब ही होते हैं !!

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  9. शरद जी,
    ब्लाग पर आलोचना ने अपना पैर रखा है। यह हिन्दी ब्लाग के विकास का प्रमाण है। अब तक निंदा और प्रशंसा दोनों थीं। लेकिन आलोचना भी कुछ हद तक थी ही। मैं ने स्वयं अनेक टिप्पणियाँ ऐसी कीं जिन में रचना की कमियों की तरफ इशारा था। उन्हें लेखकों ने स्वीकार और पसंद किया। धीरे-धीरे आलोचना यहाँ भी ग्राह्य हो लेगी। लेकिन ब्लाग जगत में आलोचना सकारात्मक तत्वों को निकाल बाहर लाने से आरंभ होनी चाहिए। बाकी चीजें तो पाठक भी चीन्हने लगे हैं।

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  10. इतनी लम्बी चौड़ी खाने के बाद अब नहीं आयेंगे वे बेनामी महोदय दुबारा आपके घर !

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  11. आलोचना से सम्बंधित कई भ्रांतियां दूर हुई ...आभार ...!!

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  12. शरद भाई-जो भी बेनामी रहे होंगे उनके मन मे वे पश्न पैदा हो रहे थे और स्वयं मुह दिखाकर पुछ नही सकते थे इसलिए बेनामी हो कर पुछा, आपने अच्छा किया जो उनकी जिज्ञासा शांत की-और आलोचना तो अत्यावश्यक है, इससे लेखक का लेखन भी निखरता है और आने वाली पीढी को कचरा मिलने की जगह उत्कृष्ट रचनाएं मिलती है। आभार

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  13. संगीता पुरी जी की बात से सहमत हूँ।

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  14. और अपनी पोस्ट पर मेरी टिप्पणियों का बुरा मत मानिये

    भई बुरा मानने या न मानने के बारे में तो तभी सोचेंगें न, जब हमारी किसी पोस्ट पर आपकी टिप्पणी देखने को मिलेगी :)

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  15. शरद जी ..
    किसी भी चीज़ को प्यूरीफ़ाईड करने के लिए ..आलोचना, समालोचना, विवेचना..और कोई भी चना ..करनी पडे तो करनी चाहिये..हां करते समय इस बात का ध्यान जरूर रखना पडता है कि ..एक तो आपकी नीयत स्पष्ट हो..न सिर्फ़ हो बल्कि दिखे भी ...और ये कोई मुश्किल तो नहीं है । हिंदी ब्लोग्गिंग एक साथ बहुत से चेहरों को ओढ के चल रही है ,,जाहिर है कि सब अलग अलग लेपों का असर है...टिकेगा वही जो शाश्वत और सुंदर होगा ...और ये अपने आप तय हो जाता है । अब ये शुरू हुआ है तो जाहिर है कि अपना मुकाम भी पा ही लेगा ।

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  16. Sharad ji maine link padhi.

    आज आलोचना का अर्थ बदल गया है. फिर भी आलोचना जरुर होनी चाहिए लेकिन आलोचक को भी अपनी कसौटी पर खरा होना चाहिए.
    आलोचक को समग्र रूप से अपने आस-पास या कहीं समाज में व्याप्त हिंदी की दुर्दसा के प्रति जागरूक होकर आलोचना करनी चाहिए.
    मेरा तो मानना है की आलोचना जरुर होनी चाहिए इससे पता चलता है की और बेहतर प्रयास किया जा सकता है और आजकल तो प्रस्तुत करने का तरीका ही तो आना चाहिए.
    कोई न कोई आलोचक होना ही चाहिए
    बाकी आप जैसे जाने पहिचान और साहित्यकारों जैसा हम ज्ञान कहाँ?
    आखिर में मैं तो यही कहूँगी
    निदक नियरे रखिये ........................सुभाय.
    कुछ अप्रिय लगे तो क्षमा कीजियेगा
    www.kavitarawatbpl.blogspot.com

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  17. Sharad ji maine link padhi.

    आज आलोचना का अर्थ बदल गया है. फिर भी आलोचना जरुर होनी चाहिए लेकिन आलोचक को भी अपनी कसौटी पर खरा होना चाहिए.
    आलोचक को समग्र रूप से अपने आस-पास या कहीं समाज में व्याप्त हिंदी की दुर्दसा के प्रति जागरूक होकर आलोचना करनी चाहिए.
    मेरा तो मानना है की आलोचना जरुर होनी चाहिए इससे पता चलता है की और बेहतर प्रयास किया जा सकता है और आजकल तो प्रस्तुत करने का तरीका ही तो आना चाहिए.
    कोई न कोई आलोचक होना ही चाहिए
    बाकी आप जैसे जाने पहिचान और साहित्यकारों जैसा हम ज्ञान कहाँ?
    आखिर में मैं तो यही कहूँगी
    निदक नियरे रखिये ........................सुभाय.
    कुछ अप्रिय लगे तो क्षमा कीजियेगा

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  18. padhkar aanand to liya hi magar sabse mahtvapoorn baat ye hai yaha bahut kuchh sikha aur kai vicharo se ru-b-ru ho achchhi jaankari hasil ki .disha suchak ...jeevan ke dono pahlu jaroori hai santulan banaye rakhne ke liye ,magar ati sarvatr varjete .yug parivartan ke saath dohe aur kahavte bhi matlab badlene lage ,sthai hokar bhi asthai hai ,nindak niyre raakhiye nahi ,prashansak niyre rakhiye ,aage, swatantra vicharo ki dhara hai ,kisi ne sahi kaha hai -jaaki jaisi bhavna.....aur sabke vichaar umda hai unhe kya dohrau shaadhuvaad .

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  19. शरद भाई
    अच्छी परिचर्चा हुई
    बस एक बात और कहनी है कि रिव्यू आलोचना नहीं होती है
    अक्सर पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं को आलोचना कह दिया जाता है जो मेरी नज़र से सही नहीं है।

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  20. बढिया है. हमें तो टिप्पणियां पढ के मज़ा आ गया.

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  21. बहस तो मजेदार थी। अफसोस कि मैं देर से देख पाया। एकतरफा न होती तो बेहतर था।

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  22. भाववादी आलोचना के परिभाषा की दरकार है कृपया बताएं

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