आज बहुत भारी मन से मैंने ब्लॉग विवरण में दिवंगत आलोचकों की सूची में डॉ.कमला प्रसाद का नाम जोड़ा है । और यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ उनपर लिखा एक लेख जो विगत 1 मई को अशोक सिंघई द्वारा कमला जी पर प्रकाशित एक स्मारिका के लिये मैंने लिखा था
साहित्य में अनुशासन के सिपाही – डॉ कमला प्रसाद
n शरद कोकास
साहित्य में अनुशासन के सिपाही – डॉ कमला प्रसाद
डॉ कमला प्रसाद यह नाम सम्पादक ‘ सापेक्ष ‘ महावीर अग्रवाल के मुँह से पहली बार सुना
। उन दिनों मैं दुर्ग - भिलाई में नया नया आया था । महावीर
जी और मुकुन्द कौशल इस बात से वाकिफ़ थे कि मैं कवितायें लिखता हूँ । एक दिन महावीर
जी ने पूछा “ दस दिनों के लिये जबलपुर
जाना चाहोगे ? “ “ क्यों ? “ मैंने प्रतिप्रश्न किया । “ वे
बोले …“ जबलपुर में कल से मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक कविता रचना शिविर प्रारंभ हो रहा है । इस शिविर में तुम दस दिनों में
कविता के बारे में इतना जान लोगे जो अगले दस साल में भी नहीं जान पाओगे । “ मेरे
हाँ कहने पर महावीर जी ने कहा “ ठीक है , मैं तुम्हे डॉ कमला प्रसाद के नाम से एक
पत्र देता हूँ , वे तुम्हारा नाम शिविर में शामिल कर लेंगे ।“
शाम की राज्य परिवहन की बस से मैं जबलपुर के
लिये रवाना हो गया । सुबह सुबह अपना बैग लिये जब मैं बलदेवबाग स्थित जानकी रमण
महाविद्यालय पहुँचा तो देखा एक ऊँचे पूरे सज्जन खाना पकाने वालों को कुछ सूचनायें
दे रहे हैं । मैंने उन्हीं से कहा … “ मैं दुर्ग से आया हूँ । मुझे महावीर अग्रवाल
जी ने भेजा है , मुझे कमला प्रसाद जी से मिलना है ।“ वे मुस्कुराये और कहा … आओ आओ
, मैं ही हूँ कमला प्रसाद । ऐसा करो अपना सामान वहाँ हाल में रख दो और नहा कर
नाश्ता करने आ जाओ । “
मैंने अपना सामान रखा । बाथरूम जाकर स्नान करने
के उपरांत भोजन कक्ष में आ गया । वहाँ
उपस्थित तमाम चेहरे मेरे लिए नये थे । एक लड़के ने आकर मुझसे हाथ मिलाया और कहा …
मैं सुरेश स्वप्निल हूँ भोपाल से और तुम …? मैंने कहा “ मैं शरद कोकास , दुर्ग से
। नाश्ता चल ही रहा था कि देखा कमला जी व्याख्यान कक्ष से बाहर आ रहे हैं , चलिये
आप लोगों ने अगर नाश्ता कर लिया हो तो गोष्ठी कक्ष में आ जाइये ।
हम लोग जैसे तैसे अपनी चाय समाप्त करके सभा कक्ष
में पहुँचे । कमला जी माइक पर थे …” आज हमारे शिविर का दूसरा दिन है । विलम्ब से
आने वालों को मैं यह सूचना देना चाहता हूँ कि इस कविता रचना शिविर का उद्घाटन कल
श्री अशोक बाजपेयी द्वारा श्री हरिशंकर परसाई की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ । इस
शिविर को मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्री मयाराम सुरजन ने भी
सम्बोधित किया । यद्यपि विधिवत इस शिविर का प्रारम्भ आज से ही हो रहा है और गोष्ठियाँ भी आज से ही प्रारम्भ हो रही हैं इसलिये मैं सभी
शिविरार्थियों को कुछ सूचनायें देना चाहूँगा । प्रतिदिन प्रात: साढे आठ बजे से
गोष्ठियाँ प्रारम्भ होंगी जिनमें कविता की रचना प्रक्रिया , शिल्प , भाषा ,
सम्प्रेषणीयता , बिम्ब विधान , आदि विषयों पर दो वक्ताओं के व्याख्यान होंगे जिन
पर प्रतिभागियों द्वारा चर्चा की जाएगी । दोपहर एक बजे भोजन के बाद दो बजे से
द्वितीय सत्र प्रारम्भ होगा जिसके अन्तर्गत समूह चर्चा की जाएगी । शाम पाँच बजे चाय के उपरान्त किसी एक विशिष्ठ कवि द्वारा कविता पाठ व उसकी
रचना प्रक्रिया पर बात की जाएगी । रात्रि आठ बजे भोजन तथा भोजन के पश्चात समूह के
अनुसार शिविरार्थियों की कविगोष्ठी । सभी कार्यक्रम समय पर सम्पन्न होंगे और किसी
प्रकार की अनुशासन हीनता अक्षम्य होगी । “
मैं समझ गया , कमला प्रसाद जी को ‘ कमाण्डर ‘
क्यों कहा जाता है । शिविर का टाइम- टेबल देखकर बहुत सारे शिविरार्थियों की शहर
घूमने या भेड़ाघाट जाने की योजना खटाई में पड़ चुकी थी । शाम को जब कमला जी से
शिविरार्थियों ने जब यह आशंका प्रकट की तो उन्होंने कहा “ घबराओ मत , एक दिन हम लोग भेड़ाघाट में ही
गोष्ठी रख लेंगे । “ उस दिन प्रात:कालीन सत्र में मलय जी का व्याख्यान हुआ ‘ समाज
में कविता और कविता का समाज ‘ इस विषय पर । सायंकालीन सत्र में भगवत रावत जी से
कवितायें सुनी और उस पर बातचीत की । उस दिन का पूरा कार्यक्रम कमला जी के
निर्देशानुसार ही सम्पन्न हुआ । मुझे तो इस बात की प्रसन्नता थी कि इस शिविर में परसाई जी , हरि नारायण व्यास
,राजेश जोशी , धनन्जय वर्मा , सोमदत्त , प्रो श्यामसुन्दर मिश्र ,राजेन्द्र शर्मा ,पूर्णचन्द्र
रथ जैसे कवियों और विद्वानों से मुलाकात होगी ।
पता नहीं क्यों मुझे उस दिन इस बात की गलत फ़हमी
हुई कि कमला प्रसाद जी की भूमिका शिविर मे एक व्यवस्थापक की तरह ही है । मेरा यह
भ्रम तब टूटा जब अगले ही दिन मैंने प्रात:कालीन सत्र में कमला जी को बोलते हुए
सुना । वे अपनी व्यवस्थापक वाली भूमिका का निर्वाह कर एक आलोचक की भूमिका में आ गए
थे । उस दिन ‘ परम्परा बोध और कविता ‘ इस विषय पर कमला जी का व्याख्यान सुनने को
मिला । गोष्ठी के प्रारम्भ में उन्होंने अपनी सूचनाएं प्रेषित कीं , सत्र हेतु एक
अध्यक्ष का चयन किया , एक शिविरार्थी को रिपोर्टिंग का काम सौंपा और विषय पर अपना
व्याख्यान देना प्रारम्भ किया ।
“ प्रत्येक कवि के लिए परम्परा बोध इसलिये
आवश्यक है कि वह वर्तमान को भलिभाँति समझ सके और भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सके ।
यह बोध लदे हुए आदर्शों के कारण आवश्यक नहीं है आवश्यक इसलिये है कि वह आज में
घुसा हुआ है । हमारे मन में , हमारी चेतना में यह परम्परा भीतर तक धसी हुई है और
वह प्रत्यक्ष दिखाई देती है । जिस प्रकार धरती के ऊपर की परत को जानने के लिए ,
उसकी संरचना को जानने के लिए उसकी भीतरी परतों को जानना आवश्यक है उसी तरह भीतर
बसी हुई परम्पराओं को देखना भी आवश्यक है । “
कमला जी बहुत सरल शब्दों में शिविरार्थियों के
सम्मुख अपने विचार रख रहे थे …” एक समय
इतिहास हन्ताओं का एक वर्ग सक्रिय था , परम्परा बोध की आवश्यकता उन्हें नहीं थी ,
वे ऐसा चाहते भी नहीं थे , लेकिन आज इसलिये है कि वर्तमान को देखने के लिए अतीत को
समझना आवश्यक है । साहित्य एवं संस्कृति की परम्परा को देखें तो ज्ञात होगा कि ऐसे
कितने ही रचनाकार थे जिन्होंने सामंतों के लिए लिखा , बाद के समय में अनेकों ने
पूंजीपतियों के लिए लिखा लेकिन ऐसे बहुत कम थे जिन्होंने जनता के लिए लिखा । इस
तरह हम रचनाकारों को चार किस्मों में विभाजित कर सकते हैं । पहले राजा स्वयं ,दूसरे
उनके दरबारों में उनके संरक्षण में रहकर
लिखने वाले , तीसरे सबसे अलग रहकर कला में अपनी बात कहने वाले और चौथे जन के बीच
रहकर लिखने वाले । “
इसी सत्र में “ साहित्य और विचारधारा इस विषय पर
भी कमला प्रसाद जी के विचार सुनने को मिले । उन्होंने कहा “ विचार इतिहास की
सृष्टि है । मनुष्य में प्रेम ,घृणा , भूख यह मूल राग होते हैं , यही कविता में भी
विकसित होते हैं । यदि मनुष्य इन मूल रागों से भटकता है तो उसकी दोषी व्यवस्था
होती है । मूल रागों से भटकने पर असंतोष बढ़ता है , फ़िर वह कृत्रिम शांति की तलाश
में साधु संतों बाबाओं के पास जाता है । इसीलिये उसे सही विचारधारा की आवश्यकता
होती है । कवि का यह कर्तव्य है कि वह स्वयं सही विचारधारा की तलाश करे और अपनी
विचारधारा का उपयोग मनुष्य के मूल रागों की वापसी की ओर करे । “
कमला प्रसाद जी के विचारों को जानने का यह मेरा
पहला अवसर था । फ़िर दस दिनों तक उनसे काफ़ी बातचीत हुई । वे ही अकेले एक ऐसे
व्यक्ति थे जो भोजन कक्ष में , शयन कक्ष में लगातार शिविरार्थियों के साथ रहते थे
। कमला जी से परिचय की यह शुरुआत थी । उस शिविर में मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि
दुर्ग- भिलाई के रचनाकारों से कमला जी का विशेष अनुराग है और यह मैंने उनके
दुर्ग-भिलाई आगमन पर महसूस भी किया । उनका यह अनुराग कम तो कभी नहीं हुआ अपितु
लगातार बढ़ता ही रहा । इस शिविर के दस वर्षों पश्चात जब अपना पहला कविता संग्रह
प्रकाशित करने का विचार मन में आया तो उसकी भूमिका लिखने के लिये कमला जी के अलावा
और किसी का नाम मेरे मन में नहीं आया , जबकि उन दिनों कवियों से ही ब्लर्ब और
भूमिका लिखवाने की परम्परा थी । मित्रों ने कहा भी कि कमला जी आलोचक हैं और आलोचक
का काम कविता संग्रह प्रकाशित होने के पश्चात प्रारम्भ होता है । मैंने किसी की
कोई बात नहीं सुनी , कमला जी से साधिकार अनुरोध किया और पाण्डुलिपि उन्हे भेज दी ।
उन्होंने सहर्ष यह भूमिका लिख भेजी साथ ही अपने सुझाव भी दिये ।
भोपाल में उनसे मुलाकात के अलावा ,प्रगतिशील
लेखक संघ के कार्यक्रमों में , हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यक्रमों में कमला जी
जब भी दुर्ग भिलाई आये , उनसे बातचीत का अवसर मिलता रहा । संगठन के बारे में या
लेखन के बारे में जब भी कोई कठिनाई मुझे महसूस होती मैं उन्हें पत्र लिख देता ।
उनके लिखे हुए बहुत सारे पोस्टकार्ड आज मेरी धरोहर हैं । जब भी मैं उनसे सम्वाद की
आवश्यकता महसूस करता हूँ अपने संग्रह की भूमिका या उनकी चिठ्ठियाँ पढ़ लेता हूँ ।