बुधवार, 4 अगस्त 2021

9. प्रेम एक भौतिक अवधारणा है.....



पिछली बार हमने प्रेम पर बात करते हुए मनुष्य की सामाजिक सापेक्षता की चर्चा की थी, इस बार हम प्रेम की भौतिक अवधारणा को समझने की कोशिश करेंगे....


प्रेम मनुष्य का, विशेषतः युवावस्था में, एक स्थायी भावनात्मक संवेग है। इसे मनुष्य की प्राकृतिक और सामाजिक सापेक्षताओं, जिनका कि पूर्व में थोडा़ विवेचन हुआ है, की सीमाओं के संदर्भ में ही सही-सही समझा जा सकता है।
मनोविज्ञान में प्रेमशब्द को इसके संकीर्ण और व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। अपने व्यापक अर्थों में प्रेम एक प्रबल सकारात्मक संवेग है, जो अपने लक्ष्य को अन्य सभी लक्ष्यों से अलग कर लेता है और उसे मनुष्य अपनी जीवनीय आवश्यकताओं एवं हितों का केंद्र बना लेता है। मातृभूमि, मां, बच्चों, संगीत आदि से प्रेम इस कोटि में आता है।
अपने संकीर्ण अर्थों में प्रेम मनुष्य की एक प्रगाढ़ तथा अपेक्षाकृत स्थिर भावना है, जो शरीरक्रिया की दृष्टि से यौन आवश्यकताओं की उपज होती है। यह भावना, मनुष्य में अपनी महत्वपूर्ण वैयक्तिक विशेषता द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन में इस ढंग से अधिकतम स्थान पा लेने की इच्छा में अभिव्यक्त होती है कि उस व्यक्ति में भी वैसी ही प्रगाढ़ तथा स्थिर जवाबी भावना रखने की आवश्यकता पैदा हो जाये।
इस तरह प्रेम के दो पहलू सामने आते हैं, एक आत्मिक और दूसरा शारीरिक। प्रेम को या तो केवल कामवृति का पर्याय मान लिया जाता है, या फिर उसके शारीरिक पहलू को नकारकर अथवा महत्वहीन बताकर उसे मात्र एक आत्मिकभावना का दर्जा दे दिया जाता है। सत्य यह है कि शारीरिक आवश्यकताएं निश्चय ही पुरूष तथा स्त्री के बीच प्रेम की भावना के पैदा होने तथा बने रहने की एक पूर्व अपेक्षा है, किंतु अपनी अंतरंग मानसिक विशेषताओं की दृष्टि से प्रेम एक समाजसापेक्ष भावना है, क्योंकि मनुष्य के व्यक्तित्व में शारीरिक तत्व दब जाता है, बदल जाता है और सामाजिक रूप ग्रहण कर लेता है।

यहां किशोरावस्था के प्रेम का भी अलग से जिक्र किया जाना चाहिये, क्योंकि अपने विशिष्ट स्वरूप के कारण यह विशेष महत्व रखता है। व्यस्कों की तरह ही, किशोर अवस्था में किया जाने वाला प्रेम भी यौन आवश्यकता की उपज होता है परंतु यह व्यस्क प्रेम से बहुत भिन्न होता है। आम तौर पर किशोर इसके मूल में निहित आवश्यकताओं के बीच स्पष्ट भेद नहीं कर पाते और यह भी पूरी तरह नहीं जानते कि इन्हें कैसे तुष्ट किया जाता है। अक्सर व्यस्क लोग उनकी इस कोमल भावना को अपने निजी यौन अनुभवों की दृष्टि से देखते है, और यह अहसास की उन्हें गलत नजरिए से देखा जा रहा है किशोरों के अंदर अविश्वास, अवमानना और धृष्टता के भाव पैदा होने की संभावना देता है। हालांकि इस आयु में प्रेम वस्तुपरक रूप से कामेच्छा पर आधारित होता है पर प्रेमियों के व्यवहार का स्वरूप इस कामेच्छा की बात को नकारता है और प्रेम की भावना को मानसिक ताने-बाने में उलझाकर एक ऐसा घटाघोप तैयार कर लेता है, जिसकी परिणति नकारात्मक स्वरूप ग्रहण कर लेती है।

अब मनोविज्ञान से बाहर निकलते हैं और देखते हैं कि उपरोक्त विवेचना के आधार पर और भावनाओं के भौतिक आधार के मद्दे-नज़र, यह कहा जा सकता है कि प्रेम वस्तुतः एक भौतिक अवधारणा है जिसका कि सार अंत्यंत समृद्ध तथा विविध है। लोगों के बीच प्रेम एक ऐसे अंतर्संबंध का द्योतक है, जो एक दूसरे की संगति के लिए लालायित होने, अपनी दिलचस्पियों और आकांक्षाओं को तद्‍रूप करने, एक दूसरे को शारीरिक और आत्मिक रूप से समर्पित करने के लिए प्रेरित करता है। प्रेम की भावना प्राकृतिक आधार रखती है परंतु मूलतः यह सामाजिक है।

जो मनुष्य प्रेम की इस भावना को सिर्फ़ प्राकृतिक आधारों पर निर्भर रखते है, जिनके लिए व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति ही सबसे महत्वपूर्ण होती है, वे इसके सामाजिक पहलू और सरोकारों को जबरन नज़रअंदाज करते हैं और अपनी भौतिक जरूरतों और अहम् की तुष्टि के लिए आसमान सिर पर उठा लेते हैं। जो मनुष्य प्रेम इस भावना को सिर्फ़ सामाजिक आधारों के हिसाब से तौलते हैं, वे अपने सामाजिक सरोकारों के सामने इसका दमन करते हैं, और कुंठाओं का शिकार बनते हैं।

जो मनुष्य प्रेम की इस भावना के प्राकृतिक आधारों को समझते हुए सामाजिक आधारों तक इसे व्यापकता देते हैं, प्रेम के सही अर्थों को ढूढ़ने की कोशिश करते हैं, इसे व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में समझने की कोशिश करते हैं वे इस अंतर्विरोध से भी जिम्मेदारी से जूझते हैं और अपनी व्यक्तिगत जरूरतों और सामाजिक सरोकारों के बीच एक तारतम्य बिठाते हैं। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि ये भावनाएं, ये अंतर्विरोध, ये द्वंद वास्तविक भौतिक परिस्थितियों से निगमित हो रहे हैं, इसलिए इनका हल भी वास्तविक भौतिक क्रियाकलापों और परिस्थितियों के अनूकूलन से ही निकल सकता है न कि मानसिक क्रियाकलापों और कुंठाओं से जो कि अंततः गहरे अवसादों का कारण बन सकते हैं।

आपका समय 

प्रस्तुति : शरद कोकास 


शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

8.मनुष्य की सामाजिक सापेक्षता....




पिछली बार हमने प्रेम पर बात करते हुए मनुष्य की प्रकृति संबंधित सापेक्षता की चर्चा की थी, इस बार हम देखेंगे मनुष्य की सामाजिक सापेक्षता के संदर्भ...

मनुष्य और उसकी चेतना परिवेश और समाज के साथ उसके क्रियाकलाप का उत्पाद हैं। मनुष्य का विकास, समाज के साथ उसकी अंतर्क्रियाओं पर निर्भर करता है और मनुष्य समाज द्वारा पोषित अनुभवों से गुजरते हुए तद्‍अनुसार ही भाषा और व्यवहारिक ज्ञान से परिपूर्ण मनुष्य के रूप में उभरता है।
समाज से विलग मनुष्य का कोई अस्तित्व संभव नहीं हो सकता और किसी अपवाद स्वरूप अस्तित्व बचा रह भी जाए तो वह मनुष्य के जाने पहचाने रूप में विकसित नहीं हो सकता।
एक ओर सामाजिक व्यवहार के कारण विकसित मनुष्य की यह समझ, विवेक और उसके सामाजिक क्रियाकलापों, विचारों और व्यवहारों को नियंत्रित और नियमित करती रहती है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति की एक पैदाइश के रूप में मनुष्य की प्राकृतिक स्वभाव की नाभिनालबद्धता उसे एक व्यक्तिगत ईकाई के रूप में, व्यक्तिगत जिजीविषा हेतु विचार और व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती रहती है। जाहिर है कि मनुष्य अपनी इस सामाजिक और व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अंतर्विरोध में हमेशा घिरा रहता है।

अब जरा व्यक्तिगत आवश्यकताओं की भी पड़ताल करते हैं कि क्या वाकई ये व्यक्तिगत आवश्यकताएं हैं?
अगर इन व्यक्तिगत आवश्यकताओं की तह में जाया जाए तो मूलभूत आवश्यकता के रूप में भोजन प्राप्ति, विपरीत परिस्थितियों से बचने की स्वाभाविक प्रवृति और यौन जरूरतें ही इसकी जद में आती हैं। यौन-तुष्टी की आवश्यकता के सकारात्मक रूप भी, चूंकि इसमें एक अन्य व्यक्ति और अस्तित्व में आता है, सामाजिक परिधी के दायरे में ही आते हैं। नकारात्मक यौन कुंठाओं की पूर्ति की दुर्दम्य इच्छा को ही इस व्यक्तिगत मामले में रखा जा सकता है, जबकि इसके लिए भी उस दूसरे के अस्तित्व को बलपूर्वक बेहयाई से नकारना आवश्यक है। इसलिए केवल भोजन के कुछ रूप और बचाव की प्रवृति को ही मनुष्य की नितांत व्यक्तिगत आवश्यकताओं की श्रेणी में रखा जा सकता है, इस बात को भूलते हुए कि मनुष्य इनके व्यवहार भी समाज के अंदर रह कर ही सीखता है। बाकि सभी (और वैसे तो ये सभी भी) व्यक्तिगत आवश्यकताएं किसी ना किसी रूप में सामाजिकता से अभिन्न रूप से जुडी़ होती हैं।

अतएव यह आसानी से समझा जा सकता है कि मनुष्य की जिंदगी में व्यक्तिगत कुछ नहीं होता। वह खुद, उसकी सारी तथाकथित व्यक्तिगत आवश्यकताएं, उसकी सारी भावनाएं, विचार, क्रियाकलाप किसी ना किसी रूप में दूसरों से, फलतः समाज से जुडे़ होते हैं। उसकी व्यक्तिगतता का अस्तित्व, यदि वह यह भ्रम रखना भी चाहता है तो दूसरों के यानि की समाज के बेहयाईपूर्ण नकार से, अस्वीकार से या बलपूर्वक चतुराई से ही थोडा़ बहुत संभव हो सकता है।

 

आपका समय

प्रस्तुति : शरद कोकास

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

7.प्रेम और इसके प्राकृतिक एवं सामाजिक अंतर्संबंध

 


तो हे मानव श्रेष्ठों,

समय फिर हाज़िर है...

एक पुरानी जिज्ञासा थी एक भाई की..
प्रेम और इसके प्राकृतिक एवं सामाजिक अंतर्संबंध और अंतर्विरोधों के संबंध में...
समय ने सोचा क्यूं न इस बार इस पर ही माथापच्ची की जाए..
प्रेम की भावना मनुष्यों के दिमाग़ और उसके सभ्यतागत सामाजिक विकास की पैदाइश है। पर हम प्राकृतिक सापेक्षता से अपनी चर्चा की शुरुआत करेंगे।


प्रकृति के नज़रिये से देखा जाए तो वहां यह आसानी से देखा और समझा जा सकता है कि प्रकृति की हर शै एक दूसरे से आबद्ध है, अंतर्संबंधित है। प्रकृति में श्रृंखलाबद्ध तरीके से कुछ घटकों का विनाश, कुछ घटकों के निर्माण के लिए निरंतर चरणबद्ध होता रहता है। यहां विचार और भावना को ढूंढ़ना कोरी भावुकता है।यदि जैविक प्रकृति के नज़रिए से देखें तो हर जीव अपनी जैविक उपस्थिति को बनाए रखने के लिए प्रकृति से सिर्फ़ जरूरत और दोहन का रिश्ता रखता है, और अपनी जैविक जाति की संवृद्धि हेतु प्रजनन करता है।

प्रजनन की इसी जरूरत के चलते कुछ जीवों के विपरीत लिंगियों कोसाथ रहते और कई ऐसे क्रियाकलाप करते हुए देखा जा सकता है जिससे उनके बीच एक भावनात्मक संबंध का भ्रम पैदा हो सकता है, हालांकि यह सिर्फ़ प्रकॄतिजनित प्रतिक्रिया/अनुक्रिया का मामला है। कुछ विशेष मामलों में जरूर यह अहसास हो सकता है कि कुछ भावविशेषों तक यह अनुक्रियाएं पहुंच रही हैं।मनष्य भी प्रकृति की ही पैदाइश है, इसलिए प्रकॄतिजनित स्वाभाविक प्रतिक्रिया/अनुक्रिया के नियमों से यह भी नाभिनालबद्ध है। परंतु बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, वरन् यहीं से शुरू होती है।

 

अब थोड़ा सा मनुष्य और प्रकृति के अंतर्द्वन्दों को देखें...
मनुष्य के मनुष्य-रूप में विकास को देखें, तो यह इसलिए संभव हो पाया कि इस प्राणी ने प्रकृति के नियमों में बंधने के बजाए, इस नाभिनालबद्धता को चुनौती दी। प्रकृति के अनुसार ढ़लना नहीं वरन् प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास किए, प्रकृति के अंतर्जात नियमों को समझना और उन्हें अपनी जरूरतों के अनुसार काम में लेना शुरू किया। इस लंबी प्रक्रिया के दौरान ही मनुष्य की चेतना का विकास हुआ और वह आज की सोचने-समझने की शक्ति तक पहुंचा।


यानि कि प्रकृति से विलगता के प्रयासों ने मनुष्य को सचेतन प्राणी बनाया और इसकी चेतना ने प्रकृति के साथ अपने अंतर्संबंधों को समझ कर पुनः इसे प्रकृति की और लौटना सिखाया। मनुष्य और प्रकृति के आपसी संबंधों के अंतर्गुथन को समझने या निर्धारित करते समय, इस अंतर्विरोध को ध्यान में रखना चाहिए।


 

शनिवार, 10 जुलाई 2021

6.दिमाग को कभी दिल के रूबरू करके देखिये.


समय
 के साये में एक सम्माननीय आगन्तुक ने एक टिप्पणी में क्या खू़ब बातकही हैएक खू़बसूरत अंदाज़ में.....

दिमाग को कभी दिल के रूबरू करके देखिये.. फिर कहिए..
समय ने सोचा चलो आज इस बेहद प्रचलित जुमले पर ही बात की जाए।
अक्सर इसका कई विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है। दिल की सुनों....दिल से सोचो...दिमाग़ और दिल के बीच ऊंहापोह....दिमाग़ कुछ और कह रहा थादिल कुछ और....मैं तो अपने दिल की सुनता हूं...दिल को दिमाग़ पर हावी मत होने दो....दिल अक्सर सही कहता हैपर हम दिमाग़ लगा लेते हैं...बगैरा..बगैरा..
इस तरह दिल और दिमाग़ दो प्रतिद्वन्दी वस्तुगत बिंबोंअलग-अलग मानसिक क्रिया करने वाले दो ध्रुवो के रूप में उभरते हैंजोहमारे अस्तित्व से बावस्ता हैं।

चलिए देखते हैंवस्तुगतता क्या है।
अधिकतर जानते हैं कि शारीरिक संरचना के बारे में मानवजाति के उपलब्ध ग्यानयानि शरीर-क्रिया विग्यान के अनुसार दिमाग़ यानि मस्तिष्क सारी संवेदनाओं औरविचारों का केन्द्र है जबकि दिल का कार्य रक्त-संचार हेतु आवश्यक दबाब पैदा करना है,यह एक पंप मात्र है जिसकी वज़ह से शरीर की सारी कोशिकाओं और मस्तिष्क को भीरक्त के जरिए आवश्यक पदार्थों की आपूर्ति होती है। 

ऐसा नहीं है कि इन जुमलों को प्रयोग करने वाले इस तथ्य को नहीं जानतेफिर भीइनका प्रयोग होता है।
एक तो भाषागत आदतों के कारणदूसरा कहीं ना कहीं समझ में यह बात पैठी होती हैकि मनुष्य के मानस में भावनाओं और तार्किक भौतिक समझ के वाकई में दोअलग-अलग ध्रुव हैं।

अक्सर ’दिल के हिसाब से’ का मतलब होताहैप्राथमिक रूप से मनुष्य के दिमाग़ में जोप्रतिक्रिया या इच्छा उत्पन्न हुई है उसकेहिसाब से या अपनी विवेकहीन भावनाओं केहिसाब से मनुष्य का क्रियाशील होना।जबकि ’दिमाग के हिसाब से’ का मतलबहोता हैमनुष्य का प्राप्त संवेदनों औरसूचनाओं का समझ और विवेक के स्तर केअनुसार विश्लेषण कर लाभ-हानि के हिसाबसे या आदर्शों के सापेक्ष नाप-तौल करक्रियाशील होना।
कोईकोई ऐसे सोचता है कि प्राथमिकप्रतिक्रिया या इच्छा शुद्ध होती हैदिल कीआवाज़ होती है अतएव सही होती हैजबकिदिमाग़ लगाकर हम अपनी क्रियाशीलता कोस्वार्थी बना लेते हैं। कुछ-कुछ ऐसे भी सोचतेहैं कि दिमाग़ से नाप-तौल कर ही कार्यसंपन्न करने चाहिए।

क्या सचमुच ही प्राथमिक प्रतिक्रिया या इच्छा अर्थात दिल की आवाज़ शुद्ध और सही होती है?
चलिए देखते हैं।
आप जानते हैं कि एक ही वस्तुगत बिंब अलग-अलग मनुष्यों में अलग-अलग भावना का संचार करता है। एक ही चीज़ अगर कुछमनुष्यों में तृष्णा का कारण बनती है तो कुछ मनुष्यों में वितृष्णा का कारण बनती है जैसे कि शराबमांस आदि। जाहिर है ऐसे मेंइनके सापेक्ष क्रियाशीलता भी अलग-अलग होगी। किसी स्त्री को देखकर पुरूष मन मेंनरमादा के अंतर्संबंधों के सापेक्ष उसे पाने कीपैदा हुई प्राथमिक प्रतिक्रिया या इच्छा अर्थात दिल की आवाज़ को सामाजिक आदर्शों के सापेक्ष कैसे शुद्ध और सही कहा जा सकताहैऐसे ही कई और चीज़ों पर भी सोचा जा सकता है।

दरअसलएक जीव होने के नाते हर मनुष्य अपनी जिजीविषा हेतु बेहद स्वार्थीप्रवृत्तियों और प्राथमिक प्रतिक्रियाओं या इच्छाओं का प्रदर्शन करता है या करनाचाहता हैपरंतु एक सामाजिक प्राणी होने के विवेक से संपन्नता और आदर्शप्रतिमानों की समझ उसे सही दिशा दिखाती है और उसके व्यवहार को नियमित औरनियंत्रित करती है। अब हो यह रहा है कि आज की व्यवस्था द्वारा प्रचलित औरस्थापित मूल्यों में सामाजिकता गायब हो रही है और व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति केहितसाधन को प्रतिष्ठित किया जा रहा है अतएव जब सामान्य स्तर का मनुष्य जबदिमाग़ लगाता है तो नापतौल कर अपनी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति हेतु प्रवृत होता है।

इसीलिए यह विचार पैदा होता है कि वह यदि अपने दिल की आवाज़ पर जो कि साधारणतयाः अपने विकास हेतु समाज पर निर्भर होने के कारण कुछ-कुछ सामाजिक मूल्यों से संतृप्त होती हैके हिसाब से कार्य करे तो शायद ज़्यादा बेहतररहेगा।
समय के उक्त सम्माननीय आगन्तुक की टिप्पणी का शायद यही मतलब है।
जाहिर हैजिस मनुष्य का ग्यान और समझ का स्तर अपेक्षाकृत निचले स्तर पर होता हैउसके व्यवहार का स्तर इन प्राथमिकप्रतिक्रियाओं या इच्छाओं या दिल की आवाज़ पर ज़्यादा निर्भर करता है और जो अपने ग्यान और समझ के स्तर को निरंतरपरिष्कृत करते एवं विवेक को ज़्यादा तार्किक बनाते जाते हैंउनके व्यवहार का स्तर भी तदअनुसार ही ज़्यादा संयमित,विवेकसंगत और सामाजिक होता जाता है।

समय 

प्रस्तुति : शरद कोकास