पिछली बार हमने प्रेम पर बात करते हुए मनुष्य की सामाजिक सापेक्षता की चर्चा की थी, इस बार हम प्रेम की भौतिक अवधारणा को समझने की कोशिश करेंगे....
प्रेम मनुष्य का, विशेषतः युवावस्था में, एक स्थायी भावनात्मक संवेग है। इसे मनुष्य की प्राकृतिक और सामाजिक सापेक्षताओं, जिनका कि पूर्व में थोडा़ विवेचन हुआ है, की सीमाओं के संदर्भ में ही सही-सही समझा जा सकता है।
मनोविज्ञान में ‘प्रेम’ शब्द को इसके संकीर्ण और व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। अपने व्यापक अर्थों में प्रेम एक प्रबल सकारात्मक संवेग है, जो अपने लक्ष्य को अन्य सभी लक्ष्यों से अलग कर लेता है और उसे मनुष्य अपनी जीवनीय आवश्यकताओं एवं हितों का केंद्र बना लेता है। मातृभूमि, मां, बच्चों, संगीत आदि से प्रेम इस कोटि में आता है।
अपने संकीर्ण अर्थों में प्रेम मनुष्य की एक प्रगाढ़ तथा अपेक्षाकृत स्थिर भावना है, जो शरीरक्रिया की दृष्टि से यौन आवश्यकताओं की उपज होती है। यह भावना, मनुष्य में अपनी महत्वपूर्ण वैयक्तिक विशेषता द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीवन में इस ढंग से अधिकतम स्थान पा लेने की इच्छा में अभिव्यक्त होती है कि उस व्यक्ति में भी वैसी ही प्रगाढ़ तथा स्थिर जवाबी भावना रखने की आवश्यकता पैदा हो जाये।
इस तरह प्रेम के दो पहलू सामने आते हैं, एक आत्मिक और दूसरा शारीरिक। प्रेम को या तो केवल कामवृति का पर्याय मान लिया जाता है, या फिर उसके शारीरिक पहलू को नकारकर अथवा महत्वहीन बताकर उसे मात्र एक ‘आत्मिक’ भावना का दर्जा दे दिया जाता है। सत्य यह है कि शारीरिक आवश्यकताएं निश्चय ही पुरूष तथा स्त्री के बीच प्रेम की भावना के पैदा होने तथा बने रहने की एक पूर्व अपेक्षा है, किंतु अपनी अंतरंग मानसिक विशेषताओं की दृष्टि से प्रेम एक समाजसापेक्ष भावना है, क्योंकि मनुष्य के व्यक्तित्व में शारीरिक तत्व दब जाता है, बदल जाता है और सामाजिक रूप ग्रहण कर लेता है।
यहां किशोरावस्था के प्रेम का भी अलग से जिक्र किया जाना चाहिये, क्योंकि अपने विशिष्ट स्वरूप के कारण यह विशेष महत्व रखता है। व्यस्कों की तरह ही, किशोर अवस्था में किया जाने वाला प्रेम भी यौन आवश्यकता की उपज होता है परंतु यह व्यस्क प्रेम से बहुत भिन्न होता है। आम तौर पर किशोर इसके मूल में निहित आवश्यकताओं के बीच स्पष्ट भेद नहीं कर पाते और यह भी पूरी तरह नहीं जानते कि इन्हें कैसे तुष्ट किया जाता है। अक्सर व्यस्क लोग उनकी इस कोमल भावना को अपने निजी यौन अनुभवों की दृष्टि से देखते है, और यह अहसास की उन्हें गलत नजरिए से देखा जा रहा है किशोरों के अंदर अविश्वास, अवमानना और धृष्टता के भाव पैदा होने की संभावना देता है। हालांकि इस आयु में प्रेम वस्तुपरक रूप से कामेच्छा पर आधारित होता है पर प्रेमियों के व्यवहार का स्वरूप इस कामेच्छा की बात को नकारता है और प्रेम की भावना को मानसिक ताने-बाने में उलझाकर एक ऐसा घटाघोप तैयार कर लेता है, जिसकी परिणति नकारात्मक स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
अब मनोविज्ञान से बाहर निकलते हैं और देखते हैं कि उपरोक्त विवेचना के आधार पर और भावनाओं के भौतिक आधार के मद्दे-नज़र, यह कहा जा सकता है कि प्रेम वस्तुतः एक भौतिक अवधारणा है जिसका कि सार अंत्यंत समृद्ध तथा विविध है। लोगों के बीच प्रेम एक ऐसे अंतर्संबंध का द्योतक है, जो एक दूसरे की संगति के लिए लालायित होने, अपनी दिलचस्पियों और आकांक्षाओं को तद्रूप करने, एक दूसरे को शारीरिक और आत्मिक रूप से समर्पित करने के लिए प्रेरित करता है। प्रेम की भावना प्राकृतिक आधार रखती है परंतु मूलतः यह सामाजिक है।
जो मनुष्य प्रेम की इस भावना को सिर्फ़ प्राकृतिक आधारों पर निर्भर रखते है, जिनके लिए व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति ही सबसे महत्वपूर्ण होती है, वे इसके सामाजिक पहलू और सरोकारों को जबरन नज़रअंदाज करते हैं और अपनी भौतिक जरूरतों और अहम् की तुष्टि के लिए आसमान सिर पर उठा लेते हैं। जो मनुष्य प्रेम इस भावना को सिर्फ़ सामाजिक आधारों के हिसाब से तौलते हैं, वे अपने सामाजिक सरोकारों के सामने इसका दमन करते हैं, और कुंठाओं का शिकार बनते हैं।
जो मनुष्य प्रेम की इस भावना के प्राकृतिक आधारों को समझते हुए सामाजिक आधारों तक इसे व्यापकता देते हैं, प्रेम के सही अर्थों को ढूढ़ने की कोशिश करते हैं, इसे व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में समझने की कोशिश करते हैं वे इस अंतर्विरोध से भी जिम्मेदारी से जूझते हैं और अपनी व्यक्तिगत जरूरतों और सामाजिक सरोकारों के बीच एक तारतम्य बिठाते हैं। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि ये भावनाएं, ये अंतर्विरोध, ये द्वंद वास्तविक भौतिक परिस्थितियों से निगमित हो रहे हैं, इसलिए इनका हल भी वास्तविक भौतिक क्रियाकलापों और परिस्थितियों के अनूकूलन से ही निकल सकता है न कि मानसिक क्रियाकलापों और कुंठाओं से जो कि अंततः गहरे अवसादों का कारण बन सकते हैं।
आपका समय
प्रस्तुति : शरद कोकास