बुधवार, 8 जुलाई 2009

नीरज यूँ ही साहित्य में अचर्चित नहीं रह गये

प्रमोद वर्मा ने कहा था


प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की ओर से कवि विश्वरंजन द्वारा रायपुर छत्तीसग में 10 एवं 11 जुलाई 2009 को हिन्दी के महत्वपूर्ण आलोचक ,नाटककार,कवि और शिक्षाविद डॉ.प्रमोद वर्मा की स्मृति में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया है इस अवसर पर यहाँ प्रस्तुत है दुर्ग ज़िला हिन्दी साहित्य समिति के तुलसी जयंती के कार्यक्रम में 10 वर्ष पूर्व श्री प्रमोद वर्मा द्वारा दिए गए व्याख्यान का लिप्यांतर प्रमोद जी यहाँ तुलसी पर व्याख्यान देने आये थे लेकिन कुछ मू लोगों द्वारा कविता में गद्य की घुसपैठ व्यर्थ है, या छन्दबद्ध कविता ही असली कविता है और मंच के लोकप्रिय कवि ही असली कवि हैं , जैसे निरर्थक प्रश्न उछाले गये , फलस्वरूप प्रमोद जी को तुलसी पर अपना भाषण स्थगित कर उनके प्रश्नों के उत्तर में यह समाधान प्रस्तुत करना पड़ा उनका यह व्याख्यान उनके तेवर और भाषा पर अधिकार की बानगी स्वरूप जस का तस , तीन किश्तों में ब्लॉग ‘आलोचक’ पर प्रस्तुत किया जा रहा है इस व्याख्यान का ध्वन्यांकन से लिप्यांकन किया है शरद कोकास ने । इस व्याख्यान को मई 2001 के ‘अक्षरपर्व’ में श्री ललित सुरजन ने प्रकाशित किया था ,साभार प्रस्तुत है प्रथम किश्त

कविता में गद्य की उपस्थिति

कविता में गद्य की उपस्थिति के सन्दर्भ में मेरा यह कहना है कि गद्य और पद्य आपस में गड्डमड्ड नहीं होना चाहिये गद्य और पद्य के उचित मेल से ही कविता तेजस्विनी होती है छायावाद के युग में अगर प्रेमचन्द और रामचन्द्र शुक्ल जैसे बड़े गद्यकार नहीं होते तो उस युग में बीस बरस के भीतर खड़ी बोली की कविता ने प्रसाद और निराला जैसे महाकवि न दे दिये होते उनकी चुनौती प्रेमचन्द और रामचन्द्र शुक्ल जैसे लोग हैं अब गद्य और पद्य के बीच मुठभे तो होनी ही है ,कैसे आप सीमा रेखा खींच देंगे इन दोनो के बीच गद्य ,पद्य में घुसता ही जायेगा जैसे कि पद्य गद्य में घुसता जा रहा है आज की कहानियाँ उठाकर देखिये आप आज जिसे आप ललित निबन्ध कहते हैं और मुग्ध होते हैं क्या है वह ललित निबन्ध ? वह ललित निबन्ध है गीत/कविता और विचार इन दोनों के बीच कहानी गीत/कविता,कहानी और वैचारिक गद्य इन तीनों का एक समूचा सा रूप है, ,विधा है ललित निबन्ध यह तो सम्भव है ही नहीं कि इनमे आप कम्पार्टमेंटलाइज़ेशन कर देंगे ,गद्य को आप अलग कर देंगे,कविता को आप अलग कर देंगे यह सम्भव ही नहीं है । रही बात छन्द की तो मैं आपसे पूछता हूँ इसे मुक्त छन्द कहा गया है ,छन्द है उसके आगे । तो अगर यह छन्द है तो उसमें आपको आपत्ति क्या है ?

दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से

उतर रही वह सन्ध्या सुन्दरी परी सी

सीधी रेख धीरे – धीरे

तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास

या जिस कविता को विरूपित कर डॉ.त्रिलोकीनाथ आगे बढ़ गये....(प्रश्न उछालकर हॉल से बाहर चले गये )

अगर मै तुमको लगाती सांझ के नभ की

अकेली तारिका अब नहीं कहता

या शरद के भोर की कोई टपकी कली चम्पे की

नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या के सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है

बल्कि केवल यही ये उपमान मैले हो गये

देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच...

क्या इस कविता में लय नहीं है ? या यह पढ़ी नहीं जा सकती ? या याद नहीं की जा सकती ? और याद करने की.. मैं कहता हूँ ज़रूरत भी क्या है ? अब तो किताबें उपलब्ध हैं ,आप रख लीजिये रैक में और पढ़ लीजिये । अब नहीं है वो ज़माना कि आप चार वेद को याद करके चतुर्वेदी कहलाएँ या दो वेद को याद करके दुबे कहलाएँ । कतई इस बात की ज़रूरत नहीं है । और एक बात पूछना चाहता हूँ अपने उन मित्रों से जो छन्द की वकालत करते हैं ।

आपने कभी यह सोचने की या यह तलाश करने की कोशिश की है कि खड़ी बोली कविता का औरस छन्द क्या है ? हर भाषा का अपना एक औरस छन्द हुआ करता है ,या कई औरस छन्द हुआ करते हैं । जिन कवियों की फेहरिस्त एक साहित्यकार ने गिना दी उनमें से किन कवियों ने छन्दों के इतने विविध प्रयोग किये हैं । सबसे अधिक छन्दों के प्रयोग अगर हिन्दी में किसी ने किये हैं तो वो कवि है निराला जिसने मुक्तछन्द की रचना की । निराला से अधिक छन्दों के विविध प्रयोग किसी कवि ने नहीं किये । इन गीतकारों ने , जिन की बात की जाती है क्या किया है ? खड़ी बोली हिन्दी जो है उसका मिज़ाज़ ही कुछ अलग है । वैसे तो उर्दू और हिन्दी दोनों एक ही स्त्रोत से निकली हुई हैं लेकिन आप देखिये कि दोनों के मिज़ाज में कितना फर्क है । उर्दू में जो छन्द है वो वज़न का छन्द है । अवधी में आप पढ़ कर देखिये । र्ह्स्व को दीर्घ ,दीर्घ को र्ह्स्व पढ़ने की सुविधा इन भाषाओं ने आपको दे रखी है । खड़ी बोली ये आज़ादी आपको नहीं देती । जैसा आपने लिखा है वैसा आपको पढ़ना है । तब आपको छन्द निजात देता है ।

आज का औरस छन्द क्या है इस बात की सबसे गम्भीर चर्चा आज से सत्तर-अस्सी साल पहले हुई थी । आज के गीतकार इस बात की चर्चा क्यों नहीं करते मेरी समझ में नहीं आता । पंत और निराला में इस बात की चर्चा हुई थी कि हिन्दी का औरस छन्द क्या है ? कवित्त है या रोला है ।पंत जी कहते थे कि रोला है और ये कहते थे कि कवित्त है । इस शिद्दत के साथ खड़ी बोली के जातीय छन्द को पकड़ने की,जो उसके मिज़ाज के अनुरूप है ,जो उसके उच्चारण के अनुरूप है खोजने की कोशिश कहाँ हुई है ? कुछ कोशिश बच्चन ने की थी । नीरज ने क्या किया है भाई ? नीरज यूँ ही साहित्य में अचर्चित नहीं रह गये । उनके अचर्चित रहने के कुछ कारण हैं ।अगर छन्द की दिशा में उन्होने इतने विविध प्रयोग कर लिये होते , हिन्दी को उसका औरस छन्द दे दिया होता तो मुमकिन है नीरज का नाम भी आ जाता । तो इस बात की आप लोग शिद्दत से कोशिश कीजिये ।(जारी)