मंगलवार, 11 अगस्त 2009

क्या मुकुटधर पाण्डेय ने पागलपन में अच्छी कवितायें और लेख लिख डाले ?



ऐसा कहा जाता है कि कवि तो पागल होता है । यह पागलपन या दीवानापन उसका साहित्य के प्रति तो होता है लेकिन सम्भवत: अपने लेखन पर ध्यान केन्द्रित करने के फलस्वरूप अन्य दुनियावी बातों पर उसका ध्यान नहीं जाता। उसकी बेखयाली को उसका पागलपन समझ लिया जाता है । इसके अलावा वह भी एक साधारण मनुष्य होता है । अनेक किस्म के भय उसे भी हो सकते है । सन 1918 से 1923 के बीच श्री मुक़ुटधर पाण्डेय भी ऐसी ही मानसिक व्याधि या यात्रा के फोबिया से ग्रस्त थे । हाँलाकि इसी दौर में उन्होने हिन्दी में छायावाद शीर्षक से चार निबन्ध लिखे । उस दौर की कविता को छाया वाद नाम देने का श्रेय भी उन्ही को जाता है । अपनी मानसिक अवस्था के बारे में श्री क्षेमचन्द्र सुमन को एक पत्र उन्होने लिखा था प्रस्तुत है उस पत्र से यह अंश । इसे पढ़कर आप ही बतायें उन्हे क्या हुआ था ।

मुक़ुटधर पाण्डेय ने कहा था

"सन 1918 में मैं किसी काम से बिलासपुर जा रहा था । स्टेशन पर एक मित्र ने भांग की गोली खिला दी । बिलासपुर पहुंचते -पहुंचते मुझे घबराहट होने लगी । ऐसी घबराहट कि किसी प्रकार शांत नहीं हुई । मैं बिलासपुर में ठहर नहीं सका रायगढ़ लौट आया । तब तबियत ठीक हो गई । कुछ दिन बाद किसी काम से कलकत्ता जाने का विचार ठहरा । ठीक जाने के समय वही घबराहट फिर शुरू हो गई । हज़ारों बार समझने पर भी , शांत करने पर भी मन शांत नहीं हुआ । लाचार यात्रा रोक देनी पड़ी । तब घबराहट बन्द हो गई । जब कभी बाहर जाने का विचार होता बिलासपुर की याद आते ही घबराहट शुरू हो जाती मैने यह लक्षण प्रयाग के एक आयुर्वेद पंचानन, पंडित जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल सम्पादक ' सुधानिधि ' को लिख भेजा । उन्होने मेरे एक मित्र से कहा -" यह पागलपन का लक्षण है "। मित्र ने मुझे लिखा । मैने बात हंसी में उड़ा दी । मैं उसे एक हवाई बीमारी समझता था । पागलपन का खयाल तक नहीं था । सन 1918 से 1923 तक मुझे यह शिकायत तो रही ,पर इन्ही वर्षों में मैने अच्छी कवितायें लिखीं और लेख लिखे । "
(प्रस्तुत अंश वर्तमान साहित्य के आलोचना अंक मे सम्मिलित सूरज पालिवाल के लेख से साभार । मुकुटधर पाण्डेय जी पर विस्तृत जानकारी संजीव तिवारी के ब्लॉग आरम्भ में )
आपका शरद कोकास