सोमवार, 31 अगस्त 2009

जिसके पास सपना नहीं है उसे कलम रख देनी चाहिये

कमलेश्वर ने कहा था
साहित्य में तरह तरह के अंतर्विरोधों ने बड़ी दिक्कतें पैदा कीं । इस अंतरविरोध के कारण यह दिखाई पडता था कि साहित्य में आदमी यह सोचता है ,घर के मामले में ,परिवार के मामले में यह सोचता है ,समाज के मामले में यह सोचता है और राजनीति के मामले में यह सोचता है । तो यह जो अंतर्विरोध है ,इसके कारण रचना में जो दीप्ति और शक्ति आनी चाहिये वह नहीं पाती । इस तरह का बहुत लेखन होता है । मैं खुद आपसे कहता हूँ और क्षमा चाहता हूँ अपने तमाम साथियों को याद करते हुए कि जब नई कहानी का दौर आया तो उस दौर में हम कम से कम पूरे भारत में फैले हुए थे । कल्पना हैदराबाद से निकलती थी ,ज्ञानोदय कलकत्ते से निकलता था ,माध्यम निकलता था , पटना से चार-चार पत्रिकायें निकलती थीं । लगभग सौ लेखक थे , बड़ा लम्बा काँरवा था , लेकिन फिर सब कहाँ छूटते चले गये । आप सोचिये ! हम कहीं न कहीं रचना का अकेलापन झेल रहे हैं । जब लोग छूट गये तो रचना हमारी पूरक थी , क्योंकि जो हम नहीं लिख पाते थे , वह लिखता था , वह नहीं लिखता तो कोई तीसरा लिखता था । तो रचना का एक अनुपूरक दौर था । और वह पूरक रचना मिलकर एक बड़े साहित्य या बड़े सवाल का निर्माण करती थी । अभी यह बात आई कि हमारे पास सपना नहीं है ,तो मित्रवर ! एक सबसे बड़ी चीज़ यह है कि जिसके पास सपना नहीं है उसे तो कलम रख ही देनी चाहिये । खामखाँ लिख रहा है । अगर सपना नहीं है तो कलम की ज़रूरत ही नहीं है ( वाराणसी में मई1999 में पत्रिका काशी प्रतिमान द्वारा आयोजित समकालीन हिन्दी लेखन विषयक गोष्ठी में कमलेश्वर जी द्वारा अध्यक्ष पद से व्यक्त विचार के अंश : “काशी प्रतिमान” से साभार )
" यह कमलेश्वर जी ने सिर्फ 10 वर्ष पहले कहा था ,मुझे लगता है सपना तो हर मनुष्य देखता है लेकिन हर मनुष्य लेखक नहीं होता । इसलिये लेखक होने के लिये सिर्फ सपना काफी नहीं है । "
आपका -शरद कोकास