मंगलवार, 21 जुलाई 2009

आप तो कविता पढिये गाईये नहीं

प्रमोद वर्मा ने कहा था


मै अपने आप को कहता हूँ कि मै कवि यशप्रार्थी हूँ .बाबा नागार्जुन ,निराला ,नीरज और गिरिजा कुमार माथुर,लता मंगेशकर ,मोहम्मद रफी,किशोर कुमार




प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान छत्तीसगढ की ओर से अध्यक्ष ,कवि विश्वरंजन द्वारा रायपुर छत्तीसग में 10 एवं 11 जुलाई 2009 को हिन्दी के महत्वपूर्ण आलोचक ,नाटककार,कवि और शिक्षाविद डॉ.प्रमोद वर्मा की स्मृति में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया इस अवसर पर यहाँ प्रस्तुत है दुर्ग ज़िला हिन्दी साहित्य समिति के तुलसी जयंती के कार्यक्रम में 10 वर्ष पूर्व श्री प्रमोद वर्मा द्वारा दिए गए व्याख्यान का लिप्यांतर प्रमोद जी यहाँ तुलसी पर व्याख्यान देने आये थे लेकिन कुछ मू लोगों द्वारा कविता में गद्य की घुसपैठ व्यर्थ है, या छन्दबद्ध कविता ही असली कविता है और मंच के लोकप्रिय कवि ही असली कवि हैं , जैसे निरर्थक प्रश्न उछाले गये , फलस्वरूप प्रमोद जी को तुलसी पर अपना भाषण स्थगित कर उनके प्रश्नों के उत्तर में यह समाधान प्रस्तुत करना पड़ा उनका यह व्याख्यान उनके तेवर और भाषा पर अधिकार की बानगी स्वरूप जस का तस , तीन किश्तों में ब्लॉग ‘आलोचक’ पर प्रस्तुत किया जा रहा है इस व्याख्यान का ध्वन्यांकन से लिप्यांकन किया है शरद कोकास ने इस व्याख्यान को मई 2001 केअक्षरपर्वमें श्री ललित सुरजन ने प्रकाशित किया था ,साभार प्रस्तुत है-


तीसरी और अंतिम किश्त

हमारे यहां माना गया है कि दो तरह की प्रतिभाएँ होती है । जो पाठक है वह भी कवि है दरअसल सहदय जो कहा गया है उसे । हदयहीन तो नहीं होगा वह । एक बार तो नीरज बंबई में हूट हो गए लोगों ने कहा –आप गाकर कविता मत सुनाइए यहां कविता पढ़िए ,गाइए नहीं । यह अतिरिक्त साधन जो आप कविता के साथ जोड़ रहें है इसके साथ कविता को मत दीजिए । यहां गाना सुनना हो तो लता मंगेशकर हैं , मोहम्मद रफी हैं, किशोर कुमार हैं । हम उनको सुन लेगें। आप तो कविता पढ़िए ,गाईये नहीं । तो ये कविता है ,”नंगी कर लो छाती, दग रही है गोलियां “, आप सीधे वहां चले जा रहे हैं तो वह कविताई हुई । आप में इतना साहस हो तो करिए वरना कोई बात नहीं । उस हुजूम में कविता पढ़कर अगर हम मुगालते में आ जाते हैं कि हमने कविता सिध्द कर ली तो मै कहता हूँ कि इतने साल तक , कविता सिध्द करने की अनथक कोशिश करने के बाद भी मै अपने आप को कहता हूँ कि मै कवि यशप्रार्थी हूँ

कविता का गांव बहुत दूर है । कोई दो कदम चल पाता है कोई चार कदम , कोई आठ – दस कदम । जो सिध्द कर ले कविता को वो कवि होता है , कवि का परम पद उसे हासिल होता है । वह जो कविता होती है वह अमरों की वाणी होती है । इसी रुप में हमारे पुराणों ने कविता को प्रतिष्ठित किया था । इसी रुप में मैं समझता हूँ उन कवियों की प्रतिष्ठा होगी जो दरअसल कवि होगें चाहे उन्होनें छंदोबध्द कविता लिखी हो अथवा मुक्त छंद में लिखी हो इसका निर्णय आज नहीं होगा ,कल भी नहीं होगा ,हमारे जीते जी भी नहीं होगा , वो हमारे मरने के बाद होगा

सही कवि अविष्कृत होता है, पुनराविष्कृत होता है , बार बार पढ़ा जाता है इंटरप्रेट किया जाता है। समझा और समझाया जाता है वह फिर खारिज भी कर दिया गया तो उसके गुणों की खोज होती है, वह फिर स्थापित होता है। इस प्रकार कविता होती है ।

सन 1971 की बात है । मैं रायपुर में था बाबा नागार्जुन वहाँ आए थे । आते थे तो रम जाते थे । यदा कदा वो मेरे घर भी आने के कृपा करते थे । एक दिन वो आए तो बातचीत होने लगी तो उन्होनें विव्हल स्वर में कहा – ‘’ यार बहुत कविता लिखी । अब मेरा मन हो रहा है मै दोहा और सोरठा में कुछ लिखूं अगर दोहा और सोरठा सध जाए तो मैं समझूं कि हां कविता सधी । ‘’ यानी छोटी ज़मीन लेकर के अगर आप अपनी बात पूरी की पूरी कह सकें यह सामर्थ्य आप में आ गया । कवि कैसे अपने आपको , अपने सामर्थ्य को तौलता है ,अपने पंखों से लंबी उड़ानें भरता है । तो नागार्जुन ने कहा “मैं कुछ दोहा लिख रहा हूँ “उन्होनें कृपापूर्वक मेरी डायरी में पांच दोहे , ‘ दोहा पंचक ‘ लिखकर दिए उनमें से एक है-

जले ठूंठ पर बैठकर गई कोकिला कूक ।

बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक ।

अब आप देखिए इन कविताओ को मैनें ,आप विश्वास मानिए रहीम से ,तुलसी से , कबीर से, बिहारी से मिलकर देखा, कोई फर्क नहीं उन कवियों की श्रेणी में जाकर पहुंच गया यह कवि । कवि का परमपद हासिल कर लिया

कुल मिलाकर यह कि दीर्घ साधना की बात है । आपने गिरिजा कुमार माथुर को पढ़ा होगा । वैसे तो वे मुक्त छंद के कवि हैं लेकिन उनका वह गीत लाजवाब हैं –

“छाया मत छूना मन

दुख होगा दूना मन

बहुत प्यारा गीत है ।

वैसे ही निराला का गीत-

बांधों न नाव इस ठांव बंधु

पूछेगा सारा गांव बंधु

तो यूं लिखिए आप सर माथे उठाएंगे हम आपको ,हम आपकी जय जयकार करेगें हम आपकी पालकी लेकर अपने कंधों पर ढोएंगें। ऐसा लिखिए नहीं तो ठीक कहा आपने कुकुरमुत्ते तो जैसे एक फसल देतें है फिर खत्म हो जाते हैं । जो सर्वाइव करता है वही कवि बनता है शेष जैसा कि मैनें कहा कवि यशप्रार्थी ही होते हैं तो किसी को पोजीशन देने की बात नहीं है अंतिम रुप से किसी निर्णय पर पहुंचने की भी बात भी नहीं है ।

आज दरअसल कविता , जैसे एक बेहद कठिन तिलिस्म तोड़ने जैसी है जिस तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश हजारों साल से लोग कर रहें है । कोई किस्मत वाला हुआ जिसके हाथ चाबी लग गई इस तिलिस्म की तो यह मुमकिन है कि एकाध दरवाजा खुल गया । कोई मणि – मणिक मिल गया वरना कोई बात नहीं वह संतोष कर ही सकता है कि मैनें कोशिश तो की । मेरी किस्मत में नहीं है उस तिलिस्म को तोड़ना इसलिए मैं वापस लौट आया

(स्व. प्रमोद वर्मा जी का यह व्याख्यान आपको कैसा लगा .इस पर आपके विचार सादर आमंत्रित हैं)

शरद कोकास