हरिशंकर परसाई ने कहा था
आज 22 अगस्त परसाई जी के जन्म दिन पर बहुत पुरानी यह घटना याद आ रही है ।
यह 1983 की बात है । बैंक की नई नई नौकरी थी और मैं ट्रेनिंग के लिये
जबलपुर गया था ।
दुर्ग से निकलते समय
सापेक्ष के सम्पादक
महावीर अग्रवाल जी ने सापेक्ष की कुछ प्रतियाँ दीं और कहा “नेपिय
र टाउन में यह परसा
ई जी के यहाँ दे देना ।“ जबलपुर में मैने रिक्शा किया और क
हा “
परसाई जी के यहाँ चलो ।“ मोहल्ले में पहुंचकर रिक्शेवाले ने पूछा “भैया घर पता है ? “ मैने कहा “ पता तो नही है
लेकिन वे देश के बहु
त बड़े लेखक है उनका घर सब जानते होंगे । चलो किसीसे पूछ लेते हैं ।“ एक दो लोगों से पूछा तो उन्होने अनभिज्ञ
ता जताई । एक ने कहा “
कौन परसाई...? अच्छा वो वकील हैं क्या ?” वहीं 3-4 छात्र खड़े थे जब उन्होने भी कहा कि वे नहीं जानते तो मुझे गुस्सा आ गया और मैने कहा “ शर्म नहीं आती आप लोगों को देश का इतना बड़ा लेखक आपके मोहल्ले में रहता है और आप उनका घर नहीं जानते ।“ खैर पूछते–पाछते घर तो कुछ देर में मिल गया लेकिन जैसे ही मैने परसाई जी से इसका ज़िक्र किया तो वे ज़ोर से हँस पड़े और कहा “ गनीमत है उसने वकील तो कहा , लेकिन आपको इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत ..
अपने देश में लेखक ही तो सबसे कम जाना जाता है । “
फिर तो खैर हर साल उनके यहाँ जाना होता रहा । कभी
जयप्रकाश पाण्डेय ,कभी हिमांशु भाई के साथ ।एक दो
बार तो भाई
हिमांशु राय अपनी साइकल पर बिठाकर भी ले गये । उन मुलाकातों के अपने अनुभव फिर कभी लि
खूंगा । फिलहाल तो व्यंग्य पर परसाई जी के विचार जो उन्होने महावीर अग्रवाल के एक प्रश्न के उत्तर में प्रकट किये थे ।
“व्यंग्य यथार्थ से उपजता है । व्यंग्य का कार्य एक लहर उठाना है और समाज को झकझोर कर खड़ा कर दे
ना है । सभी विधाओं में व्यंग्य की भाषा शक्कर की तरह घुल जाती है । सवाल यह है कि कोई लेखक अपने युग की विसंगतियों को कितने गहरे खोजता है । उस विसंगति की व्यापकता क्या है और वह जीवन में कितनी अहमियत रखती है । मात्र व्यक्ति की ऊपरी विसंगति –शरीर रचना की ,व्यवहार की ,बात के लहज़े की,एक चीज़ है और व्यक्ति तथा समाज के जीवन की भीतरी तहों में जाकर विसंगति खोजना उन्हे अर्थ देना और उसे विरोधाभास से पृथक कर जीवन से साक्षात्कार कराना दूसरी बात है । यह समाज हमे भाषा सिखाता है अपने अध्ययन संस्कार और परिवेश से भी भाषा धीरे धीरे विकसित होती है । पाखण्ड के बारे में कहानी कविता और कई तरह के लेख लिखे जाते हैं । मै लेख न लिखकर कुल यह कह दूंगा—‘ कुछ लोग इत
ने दयालु और धार्मिक होते हैं कि रोज़ सुबह मछली को दाना चुगाते हैं और रात को फिश करी खाते हैं ।“तो अब आप भी ढूंढ कर श्री हरिशंकर परसाई का समग्र साहित्य पढ़ ही डालिये वरना अगले साल आप भी पूछेंगे ‘कौन परसाई ?’
-आपका
शरद कोकास