रविवार, 29 नवंबर 2009

बैलगाड़ी रचना है, गाड़ीवान कवि, आलोचक कुत्ता , तो क्या पाठक बैल है ?

                                                 तीसरे आलोचक का वक्तव्य -    शरद कोकास-                                                                               
                                                                                                

           कुछ समय पूर्व  ब्लॉग “साहित्य शिल्पी” में  काव्यालोचना के अंतर्गत मेरा  एक लेख प्रकाशित हुआ था  “ हर कविता तीन स्तरों पर आलोचना से गुजरती है” इस आलेख पर  प्राप्त टिप्पणियों की ओर राजीव रंजन जी ने ध्यान आकर्षित करवाया । मेरे बहुत से मित्रों सर्वश्री अनिल कुमार,नंदन, आचार्य संजीव वर्मा , रितुरंजन,तेजेन्द्र शर्मा,दिगम्बर नासवा,अभिषेक सागर,मोहिन्दर कुमार, सुश्री अनन्या,गीता पंडित,तथा किरण सन्धु ने प्रश्नों के माध्यम से अपनी शंकायें प्रस्तुत की थीं । यह एक स्वस्थ्य परम्परा है । यह सहज मानवीय स्वभाव है कि मनुष्य को जब तक अपने मानस में उठ रहे प्रश्नों का समाधानकारक उत्तर नहीं मिल जाता वह आगे की किसी भी बात को ग्रहण कर सकने में असमर्थ होता है । वह किसी न इसी माध्यम से उन शंकाओं का ऐसा समाधान चाहता है जो उसकी धारणाओं में परिवर्तन कर सके अथवा उन्हे पुष्ट कर सके। लचीलापन उसके सहज स्वभाव में होता है और अपने विवेकानुसार सही अथवा गलत के बीच भेद कर अपने लिये जो उचित है उसे वह स्वीकार कर लेता है। मैने प्रयास किया  कि इन प्रश्नों के उचित समाधान प्रस्तुत कर सकूँ ।हो सकता है कि यह प्रश्न अनेक मित्रों के मन में उठ रहे हों इसलिये "साहित्यशिल्पी" पर दिये गये उत्तर को मैं अपने  ब्लॉग "आलोचक " पर भी प्रस्तुत करना चाहता हूँ ।  इसमें मत भिन्नता सहज स्वाभाविक है ।

            अनिल कुमार जी ने कविता के सम्बन्ध में यह आदिम प्रश्न किया है कि कविता को किसी वाद की आवश्यकता क्यों है ? आदरणीय संजीव वर्मा सलिल जी ने भी पूछा है क्या किसी रचना के साथ वाद विशेष या विचारधारा विशेष के प्रतिबद्ध रह कर न्याय किया जा सकता है ? वस्तुत: ‘कविता’ को किसी वाद की आवश्यकता नहीं है । वाद कवि के भीतर होता है और वह यदि इसे अपने जीवन दर्शन में शामिल कर लेता है तो वह उसकी रचना में सहज रूप से आ जाता है । किसी वाद को जानबूझकर कविता में प्रक्षेपित करने का अर्थ कवि द्वारा अपनी मूलभूत पहचान के साथ खिलवाड़ भी हो सकता है । मूलत: यह प्रश्न मार्क्सवाद और कलावाद की बरसों से चली आ रही बहस को लेकर है । 

    कुछ के अनुसार बरसों से चली आ रही यह बहस अब समाप्त हो चुकी है और कुछ के अनुसार यह और तेज हुई है । दर असल कविता में मूल्यों की उपस्थिति से उसका स्थान तय किया जाता है स्वतंत्रता,समता,न्याय जैसे मूल्य उसके लिये अनिवार्य हैं । कवि से यह अपेक्षा की जाती है कि उसकी कविता में मूल्यों के प्रति चिंता और चिंतन दोनों ही हो । वैज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता वर्तमान में सहज अपेक्षित है ।धर्म ,पूंजीवाद और बाज़ारवाद के दुष्परिणामों से कोई अछूता नहीं है अत: कविता में अघोषित रूप से यह सब शामिल हो ही जाता है । कवि की राजनैतिक प्रतिबद्धता भी प्रभाव डालती है । कविता में सौन्दर्य,उदात्तता और कवि के सामाजिक सरोकारों की भी अपेक्षा की जाती है अत: अब केवल वाद को प्रक्षेपित कर रचना करना सम्भव नहीं है।

            अनिल जी ने पूछा है कि कविता को कौनसी संस्था मानकीकृत करती है तथा किन पत्रिकाओं में छपनेवाले कवि कहलाते हैं? कविता के मानकीकरण के लिये अभी तक किसी संस्था का गठन नहीं हुआ है जो आई.एस.आई. मार्का कविताओं पर लगा सके । कुछ संस्थायें स्वयम्भू रूप से कविता पर फतवे जारी कर सकती हैं लेकिन यह समाज ही है जो कविता के मानक तय करता है और कालानुसार उनमें परिवर्तन कर सकता है। समाज का प्रशिक्षण समय करता है जो आदिकाल से अब तक जारी है । वैसे ही सिर्फ पत्रिकाओं मे छपने वाले कवि नहीं कहलाते । कवि हर मनुष्य के भीतर होता है उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं। “पाथेर पांचाली” में हवा से हिलते हुए काँस का दृश्य देखिये आपको कैमरे से की गई कविता का आभास होगा

    कबीर और तुलसी के समय पत्रिकाएं नहीं थीं । तुलसी यदि विनय पत्रिका न भी लिखते तो बड़े कवि कहलाते {यहाँ पत्रिका का अर्थ पत्रिका के वर्तमान में प्रचलित अर्थ मेगजीन या रिसाले से नहीं है } वैसे वर्तमान में पत्रिकाओं की भी अलग राजनीति चल रही है ,लघु पत्रिका,व्यावसायिक पत्रिका,सामाजिक पत्रिका, जैसे अनेक विभाजन हैं एक समय में अखबार में लिखना कवि की गरिमा के अनुकूल नहीं माना जाता था । खैर इस विषय पर विस्तार से फिर कभी लिखूंगा । आपने पूछा है ऐसे कौनसे कवि हैं जिनकी कवितायें आम आदमी तक पहुंचती हैं।ऐसे बहुत से कवि हैं जो अपने समय में जन जन के बीच लोकप्रिय रहे हैं, बाबा नागार्जुन ,त्रिलोचन,बच्चन, शील कई नाम हैं । 

    हमारे यहाँ दुर्ग मे एक कवि बिसम्भर यादव ‘मरहा’ हैं जो तीन हजार से अधिक कार्यक्रमो में कविता पाठ कर चुके हैं जिनका प्रमाण आयोजक के हस्ताक्षर सहित उनकी डायरियों में दर्ज़ है ।विशेष बात यह कि छत्तीसगढ़ी में कविता पढ़ने वाले यह कवि निरक्षर है और उन्हे अपनी सारी कविताएँ कंठस्थ हैं वे मस्तिष्क में कविता रचते हैं और उन्हें अपने स्मृति भंडार में दर्ज़ कर लेते हैं। ऐसे कवि कम हैं जिनकी जटिल कविताएँ भी आम आदमी तक पहुंचती हैं । जटिल कविता को आम आदमी तक पहुंचाने हेतु कवि के भीतर सशक्त पाठ या प्रस्तुतिकरण  द्वारा उन्हे सम्प्रेषित करने का गुण होना चाहिये । 

    अनिल जी ने पूछा है मुख्यधारा क्या है व इसे कौन निर्धारित करता है ? मेरा मानना है कि मुख्यधारा समय निर्धारित करता है । किसी कवि ,आलोचक ,पत्रिका या संस्था को यह अधिकार नहीं है । यह मुख्य धारा काल सापेक्ष होती है । आज जो लोकप्रिय या चर्चित कवि है आवश्यक नहीं भविष्य में समय के क्षितिज पर सितारे की तरह दैदिप्यमान रहे । आपने सुना भी होगा ‘हुए नामवर बेनिशाँ कैसे कैसे ,ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे’ । अत: मुख्य धारा की परवाह ना करते हुए कवि को अपना कवि कर्म जारी रखना चाहिये ।

            संजीव जी ने पूछा है कोई रचना मानकों पर खरी होने के बाद सिर्फ इसलिये हीन कही जाये कि समीक्षक उस में प्रतिपादित विचारधारा से असहमत है । संजीव जी मानकों पर खरी उतरने के बाद रचना हीन कैसे हो सकती है । वैसे दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं का प्रतिपादन करने वाली रचनाओं  के मानक समान हो सकते हैं । मेरा मत है कि रचना को यदि पूर्वाग्रह के साथ पढ़ा जायेगा तो यह न केवल रचना और रचनाकार की अवमानना होगी बल्कि आलोचक की बुद्धि पर भी सन्देह किया जायेगा । रचनाकार का जीवन दर्शन,दृष्टि ,अनुभूतियों को कथ्य में परिवर्तित करने की क्षमता, एवं उसकी शिल्पगत विशेषता रचना के भीतर जब प्रस्फुटित होती है तो देश काल के अनुसार मानक स्वयं बनते जाते हैं । इस दृष्टि से किसी भी रचना को श्रेष्ठ या हीन साबित करना उचित नहीं है। 

    दिगम्बर जी से भी मैं यही कहना चाहूंगा कि आलोचना के लिये मापदंडों का लचीलापन आवश्यक है । आलोचक रचना के लिये पैरामीटर्स या तो स्वयं तय करता है या रचना उसके लिये पैरामीटर्स का निर्माण करती है । यह रचना की ताकत पर भी निर्भर करता है । पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहना ना आलोचना के लिये सुखद है ना रचना के लिये ।

            संजीव जी ने आलोचना,समालोचना,समीक्षा व व्याख्या मे भेद जानना चाहा है । आलोचना व समालोचना दोनो में मूलभूत कोई अंतर नहीं है । दोनों सैद्धांतिक,व्यावहारिक व विस्तृत होती हैं । सामान्यत: आलोचना का अर्थ केवल निन्दा से तथा समालोचना का अर्थ निन्दा व प्रशंसा दोनों से लिया जाता है लेकिन साहित्य में ऐसा नहीं है । आलोचना व समालोचना दोनो में निन्दा व प्रशंसा शामिल होती है । साहित्य में आलोचना शब्द ही प्रचलन में है । समीक्षा सामान्यत: एक कृति की, एक अवसर (event) की, हो सकती है इसमें निहितार्थ को इंगित (point out) किया जा सकता है । व्याख्या से तात्पर्य विस्तारपूर्वक विश्लेषण से है यह एक ग्रंथ से लेकर एक पंक्ति तक की हो सकती है ।

            अंत मे नन्दन जी की शंका जो खेमों में बँट चुकी रचना व आलोचना को लेकर है । रचनाकर्म व आलोचना दोनो के प्रभावित होने का मुख्य कारण यही है कि दोनों ने अपने आपको प्रथम आलोचक मानना छोड़ दिया है , जो मान रहे हैं वे बेहतर रच रहे हैं । तेजेन्द्र जी के विनोद से अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा । तेजेन्द्र जी आलोचक को बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते की उपमा  दिये जाने का युग शेक्स्पीयर के साथ ही समाप्त हो चुका हैआलोचना अपने आप में एक महत्वपूर्ण रचना कर्म है । 

    ब्रिटेन की छोड़िये हमारे यहाँ भी कहा जाता था कि असफल कवि आलोचक बन जाता है  लेकिन आज देखिये बहुत से महत्वपूर्ण कवि आलोचना के क्षेत्र में हैं । वैसे कुत्ते वाली उपमा में यदि हम बैलगाड़ी को रचना मान लें,गाड़ीवान को कवि,उसके नीचे चलते हुए भौंकने वाले कुत्ते को आलोचक मान लें तो पाठक बैल ही हुए ना । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण भी वे ही हैं यदि वे गाड़ी को खींचना बन्द कर देंगे तो बैलगाड़ी,गाड़ीवान और कुत्ता क्या कर लेंगे ? अत: अच्छी रचना का स्वागत करें तथा कवि और आलोचक को अपना काम करने दें ।( चित्र :महावीर प्रसाद द्विवेदी )
                                                               --- आपका -शरद कोकास