शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

रचना संवाद -4 रचना में बिम्ब व प्रतीकों का प्रयोग

रचना संवाद-चार-शरद कोकास 

कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास 

 पत्थर जैसा दिल , फूल सा चेहरा, ताड सा लम्बा  जाने कितने ही बिम्बों का इस्तेमाल हम करते हैं । लेकिन ऐसा होता है कि हम कई बिम्बों का प्रयोग अनायास ही कर जाते हैं । केवल रचना में ही नहीं बल्कि सामान्य बोलचाल में भी हम अनेक बिम्बों का प्रयोग करते हैं । सामान्यत: जिन प्रतीकों का हम इस्तेमाल करते हैं उनके रूप व गुणों को ध्यान में रखकर हम उन प्रतीकों को प्रयोग में लाते हैं । इस प्रकार वे तमाम वस्तुएँ जो हमारी चेतना के केन्द्र में होती हैं हम अपनी रचना में ले आते हैं ।

इस बात पर आपने अवश्य ध्यान दिया होगा कि पहले की कविताओं में अलंकारों का प्रयोग अधिक होता था और आजकल बिम्बों एवं प्रतीकों का । इसका कारण यही है कि आज के कवि अपने अनुभव संसार को सजीव रूप में अपनी कविता में व्यक्त करना चाहते हैं । ऐसा नहीं कि यह पहले नहीं होता था लेकिन इस वजह से आज  की समकालीन कविता जन के अधिक निकट है ।इस तरह कविता के सौंदर्यशास्त्र में भी परिवर्तन हुआ है ।

इस प्रकार हम कविता में अपनी देखी भाली वस्तुओं का बिम्ब के रूप में उपयोग करते हैं । यह सारे अनुभव हम अपनी इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं हिन्दी साहित्य की बात करें या  वैश्विक साहित्य की प्रारम्भिक दौर की रचनायें बिम्बों और अलंकारों के आधिक्य से भरी होती थीं । रचनाओं में अधिकाधिक बिम्बों और अलंकारों का होना ही उसकी श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाता था । फिर धीरे धीरे यह प्रयोग कम होने लगा उसका कारण यही था कि जिस यथार्थ का रचना में चित्रण होता था उसके लिए बिम्ब नाकाफ़ी होते थे ।

प्रश्न यह है कि कविता में बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग क्यों आवश्यक है ? वस्तुत: बिम्ब और प्रतीक हमें अपनी बात सरलता से और चिर परिचित ढंग से कहने में सहायक होते हैं । यह कविता को अनावश्यक वर्णनात्मकता से बचाते हैं । पाठक पूर्व से ही उस बिम्ब के आंतरिक गुण से परिचित होते है इसलिए वे उन बिम्बों के मध्य से कही जा रही बात को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं । बिम्ब काव्यात्मकता का विशेष गुण है इसके अभाव में कविता नीरस गद्य की तरह प्रतीत हो सकती है । इसके अलावा बिम्ब कविता को सजीव बनाते हैं ,जीवन के विभिन्न आयामों को हम बिम्बों के मध्य से सटीक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं । साहित्य की भाषा में बिम्ब अनेक प्रकार के बताये गए हैं जिनमे दृश्य , श्रव्य ,स्वाद ,घ्राण , स्पर्श आदि प्रमुख हैं ,ऐंद्रिकता इनका केन्द्रीय भाव है ।  

जिस तरह रचना के स्त्रोत होते हैं उसी तरह बिम्बों के स्त्रोत भी होते हैं हम प्रकृति से भी अपनी रचनाओं के लिये बहुत से बिम्ब  लेते हैं । प्रकृति मनुष्य और अन्य सभी प्राणियों पर एक सी कृपा करती है और कभी कभी क्रोध भी । प्रकृति और मनुष्य का यह द्वंद्व सदा से जारी है यह संसार बहुत सुन्दर है । हम अपने प्राकृतिक परिवेश में नित्य कुछ न कुछ घटित होता हुआ देखते हैं .लेकिन प्राकृतिक परिघटनाओं को हम ज्यों का त्यों रचना में नहीं लेते हैं । एक ही बिम्ब को हम अनेक तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं । कभी बादल और बरखा हमें सुख के प्रतीक लगते हैं तो कभी यह बदली ‘नीर भरी दुख की बदली’ हो जाती है । सामान्य मौसम में जो हवा हमे अच्छी लगती है गर्मियों मे लू के रूप में और सर्दियों में चुभने लगती है । बारिश जो हमें लुभाती है बाढ़ के समय अपना वीभत्स रूप प्रस्तुत करती है , सो कविता में इनका इस्तेमाल इसी तरह होना चाहिए

बिम्ब और प्रतीकों में बहुत सूक्ष्म अंतर होता है । बिम्ब अपने रूप में  तात्कालिक संवेदना  प्रस्तुत करते हैं और कवि जो कहना चाहता है उसे बिम्ब के माध्यम से स्पष्ट कर देते हैं किन्तु प्रतीक अपने अर्थ में और अधिक विस्तृत अर्थ लिए होते हैं अर्थात वे केवल स्थूल प्रतीक नहीं होते बल्कि उसके माध्यम से कवि के विचार और कविता के उद्देश्य को प्रकट करते हैं । प्रतीक के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु अपने मूल अर्थ के अलावा अन्य वस्तु को भी व्यंजना के रूप में प्रकट करती है । प्रतीक अक्सर एक सम्पूर्ण अवधारणा के लिए भी उपयोग में लाये जाते हैं ।

किसी भी रचना को लिखते समय यह बिम्ब हमारे मानस में होते हैं और हम इनका इस्तेमाल करते हैं ।
हमारे आसपास बहुत कुछ घटित होता रहता है । अकसर देखा गया है कि किसी घटना के घटते ही उसपर रचनाओं की बाढ़ आ जाती है । प्राकतिक विपदाओं को लेकर भी रचना की जाती है लेकिन जो हम अपनी आँखों से देख रहे हैं उसे जस का तस यदि रचना में उतार दें तो वह केवल वर्णनात्मक रचना हो जायेगी और पाठक पर अपना स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ेगी । यहाँ मैं बाबा नागार्जुन की एक कविता उद्धृत करना चाहता हूँ जो उन्होने अकाल पर लिखी है ।

“ कई दिनो तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास / कई दिनो तक कानी कुतिया सोई उसके पास / कई दिनो तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त / कई दिनो तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त /”

यह प्रसिद्ध कविता आपने पढ़ी ही होगी । यह सारे ब्योरे हमारे जाने पहचाने हैं लेकिन कवि ने अकाल का नाम लिए बिना उसका दृश्य प्रस्तुत करते हुए उनका अलग तरह से इस्तेमाल किया है इस तरह रचनाकार का रचना में उनका सही तरीके से प्रयोग ही मायने रखता है ।

चलिए आपको अपने जीवन की एक घटना बताता हूँ बहुत पहले की बात है ,उन दिनों मैं बैचलर था और होटल में खाना खाया करता था एक कविता लिखते हुए मुझे ‘जीवन के अंतिम समय’  को लेकर कोई बिम्ब नहीं सूझ रहा था ,ऐसा लग रहा था सारे बिम्ब इस्तेमाल किये जा चुके हैं और लिखने को अब कुछ नहीं बचा है , लिखते लिखते देर हो गई रात के करीब 11 बज चुके थे अचानक ख्याल आया कि होटल बन्द हो जाएगा तो रात भर भूखे रहना पड़ेगा सो कविता लिखना बन्द कर बिल्लू सरदार के पंजाब ढाबे पर पहुँच गया

ढाबा बन्द होने का समय हो गया था फिर भी वहां के नौकर ने मुझे खाना परोस दिया , शायद अंडा भुर्जी और तंदूरी रोटी देखा तो रोटी पर राख लगी हुई थी मैंने उससे पूछा तो उसने मासूमियत से जवाब दिया साब जब तंदूर ठंडा होने लगता है तो रोटी पर राख जमने लगती है

मैं कमरे पर लौटकर आया , कविता की कॉपी निकाली और लिखना शुरू किया ..

“ जीवन के ठंडे होते हुए तन्दूर में
सिंकती हुई रोटी पर
हावी होने लगती है
स्वर्ग पाने की अतृप्त इच्छा
राख की शक्ल में

उदर और दिमाग़ के बीच में
त्रिशंकु बनकर
उलटी लटक रही होती है
मोक्ष की अवधारणा “

बस मुझे बिम्ब मिल गया ..
तो इस तरह बिम्ब हमारे आसपास बिखरे होते हैं , उन्हें हमें ढूँढना होता है अब इससे अधिक जानना चाहते हैं तो आपको पूरा बिम्ब विधान पढ़ना होगा , प्रकृति बिम्ब , नाद बिम्ब , गंध बिम्ब , दृश्यबिम्ब आदि सो वह ख़ुद ढूंढकर पढ़ें आज के लिए बस इतना ही , शेष बातचीत करते हुए

 आपका – शरद कोकास