साहित्य में 'मजनू' आ जाये तो क्या होगा
किसी भी रचना में खास तौर पर कविता में ऐतिहासिक
या माइथोलॉजीकल सन्दर्भों की अधिकता की वज़ह से उसे तत्काल समझने में व्यवधान
उत्पन्न होता है । यह हमारे अध्ययन और
जानकारी पर निर्भर करता है कि हम उस सन्दर्भ को कितना समझ सकते हैं । सामान्यतः हम अपने
बचपन से कुछ ऐतिहासिक और माइथोलॉजीकल सन्दर्भों को जानते हैं जिनकी शिक्षा हमें
शाला और महाविद्यालय में मिलती है । दादी नानी की कहानियों में भी हमने बहुत सी बातें सुनी होती हैं । इसके बाद हम अपनी रूचि से
बहुत कुछ पढ़ते हैं । इस तरह हमारे मस्तिष्क में बचपन से अपनी इन्द्रियों के माध्यम
से प्राप्त किया हुआ ज्ञान का खजाना होता है । जिन लोगों की स्कूली शिक्षा नहीं
होती वे भी अपने समाज द्वारा प्राप्त ज्ञान से अपने आप को अपडेट करते रहते हैं ।
यदि किसी
कविता को पढ़ते हुए हमें कोई माइथोलॉजीकल सन्दर्भ
प्राप्त होता है तो हम तत्काल उसका अर्थ समझ जाते हैं । हिंदी के अनेक मुहावरे इन्ही सन्दर्भों को लेकर
बने हैं ।जैसे हमें लिखना है “वह गहरी नींद में सो रहा था” तो हम लिखेंगे “वह
कुम्भकर्ण की तरह सो रहा था” अब हमें रामायण के सन्दर्भ से यह याद है की कुम्भकर्ण
गहरी नींद सोता था । “द्रौपदी की साड़ी” शब्द पढ़ते ही हमें द्रौपदी चीरहरण की कथा
याद आ जाती है , एकलव्य का नाम पढ़ते ही हमें उसके साथ हुआ छल याद आ जाता है ।
वर्तमान सन्दर्भों में भी देखें तो 'निर्भया' शब्द
सुनते या पढ़ते ही हमें पूरी घटना का स्मरण हो जाता है ।
उसी
तरह हर सभ्यता के अपने मुहावरे होते हैं जो हमें ज्ञात नहीं होते। अब अगर किसी
कविता में “एकिलिस की एड़ी” शब्द आता है तो हम इस ग्रीक पात्र को नहीं पहचानते
इसलिए इसका अर्थ समझ नही पाएंगे । एकिलिस दुर्योधन की तरह एक पात्र था जिसकी माँ
ने उसे एड़ी से पकड़कर स्टिक नदी में डुबाया था जिससे उसका पूरा शरीर वज्र की तरह बन
गया था केवल एड़ी बची रही सो उसकी मृत्यु एड़ी में तीर लगने की वज़ह से हुई । इसलिए
योरोप की कहावत में मर्मस्थल को ‘एकिलिस की एड़ी’ कहा जाता है । लेकिन हमें इसके लिए ग्रीक माइथोलॉजी का ज्ञान होना अनिवार्य है ।
कविता सांस्कृतिक आदान –प्रदान का माध्यम होती है
अब हिंदी की कविता में यदि कुम्भकर्ण शब्द आता है तो रामायण से अनभिग्य होने के
कारण योरोप के लोग इसका अर्थ समझ नहीं पाएंगे लेकिन इस आधार पर वे इसे कविता कहने
से ख़ारिज तो नहीं कर देंगे ।
योरोप की बात छोड़ भी दें तो हमारे देश में
इतनी सारी घटनाएँ घट चुकी हैं जिनके बारे में हमें पता ही नहीं है अगर कविता में
उन घटनाओं का सन्दर्भ आता है तो हम उन्हें न जान पाने की वज़ह से उनका आस्वाद ग्रहण
नहीं कर सकेंगे ।
कविता में कवि बहुत कम शब्दों का प्रयोग
करता है और घटनाओं को बिम्बों प्रतीकों और सन्दर्भों में ही व्यक्त करता है । कविता
का अर्थ लेख नहीं होता अतः उसे विस्तार से देने की आवश्यकता भी नहीं है । यहाँ कवि
की विवशता नहीं है । यह हमारे मस्तिष्क की सीमा है । हमारे अवचेतन में जो सन्दर्भ
और बिम्ब हैं हम उन्ही के माध्यम से कविता को समझने की कोशिश करते हैं और उससे आगे
जानने की कोशिश भी नहीं करते । यह कठिनाई न केवल हिंदी की बल्कि अन्य भाषाओँ की
कविता समझने में भी आती है । उर्दू की अनेक नज़्म और गज़लें ऐसी हैं जिनमे उर्दू के
शब्द और इस्लामिक माइथोलॉजीकल शब्दों का प्रयोग होता है ,जैसे
फ़रिश्ते , नोहा की नाव , आदि । हम कविता का आनंद लेने के लिए इनका अर्थ ढूँढते हैं या नहीं ? जगजीत
सिंह की गाई एक प्रसिद्ध गज़ल है “ बाज़ीचाए अत्फाल है दुनिया मेरे आगे , होता है
शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे “ अब हम इस ग़ज़ल को समझाने के लिए उर्दू का शब्द कोश देखते
हैं या नहीं । उसी तरह बांगला या पंजाबी की कविता में
अनेक शब्द ऐसे होते हैं जिनका हिंदी में अनुवाद करते समय भी सन्दर्भों को जस का तस
रखा जाता है । हम किसी न किसी माध्यम से उनका अर्थ जानने की
कोशिश भी करते ही हैं ।
इसी तरह हिंदी की कविता में कई स्थानीय शब्द और
स्थानीय संदर्भ भी होते हैं ।लैला मजनू की कहानी सबको पता है लेकिन अमी गूजर और सस्सी पुन्नू की
कहानी कितनों को पता है ? तो कविता में अगर यह सन्दर्भ आयेंगे तो हमें उनकी तलाश
तो करनी ही पड़ेगी । फिर केवल सन्दर्भों की बात ही नहीं है
कविता में ऐसे अनेक शब्द होते हैं जिनका अर्थ हमें नहीं मालूम होता तब हम उनका
अर्थ जानने के लिए शब्द कोश देखते हैं या नहीं । हिंदी हमारी भाषा है और हम उसे
निरंतर समृद्ध करते रहते हैं उस समय हम उन क्लिष्ट शब्दों को नकारते तो नहीं ,अगर
नकारेंगे तो यह भाषा का अपमान होगा । एक साधारण व्यक्ति भले ही भाषा का ऐसा अपमान
कर सकता है लेकिन एक रचनाकार के लिए तो यह अक्षम्य होगा ।
आज हमारे पास संचार के इतने माध्यम हैं , तमाम
पुस्तकें हैं , शब्दकोष हैं , इंटरनेट है , गूगल सर्च के माध्यम से हम किसी भी
भाषा में वह शब्द टाइप कर उसका अर्थ और तमाम सन्दर्भ जान सकते हैं । एक साधारण
पाठक भी यह कर सकता है और इसके लिए बहुत ज़्यादा प्रयास करने की जरुरत नहीं है । एक
बार यदि हम उस सन्दर्भ का अर्थ भली भांति समझ लेंगे तो फिर आगे हमें कठिनाई नहीं
जायेगी । और यह इतना कठिन भी नहीं है । आज से दो सौ या तीन सौ साल पहले हिंदी में अंग्रेजी का या
योरोप की अन्य भाषाओं का कोई शब्द नहीं था,उससे पांच सौ साल पहले उर्दू ,फारसी का कोई शब्द नहीं होता था ,मुहावरों
और कहावतों की तो बात ही दूर लेकिन जैसे जैसे हमारा वैश्विक स्तर पर विकास होता जा
रहा है विश्व की अनेक भाषाओँ के और वहां घटित होने वाली घटनाओं के सन्दर्भ हमारे
साहित्य में बढ़ते जा रहे हैं । टेक्नोलोजी में जब नए शब्द आते हैं तो हम उन्हें
किस तरह आत्मसात कर लेते हैं डाटा ,केबल, सॉफ्ट वेयर , यदि यह शब्द कविता में आते
हैं तो क्या हम इन्हें अस्वीकार कर देते हैं ? सो हमें साहित्य का आनंद लेने के
लिए और वैश्विक स्तर पर अपने साहित्य को स्थापित करने के लिए उन सबको आत्मसात करना
ही होगा बल्कि अपनी कविता में उनका प्रयोग भी करना होगा । हमारी इस संकुचित
मानसिकता का खामियाज़ा हम भुगत चुके हैं । आज वैश्विक स्तर पर हिंदी की कविता को वह
स्थान प्राप्त नहीं है जो उसे मिलना चाहिए था । हम तमाम विदेशी अनुदित साहित्य
पढ़ते हैं और सोचते हैं हमारे यहाँ ऐसा साहित्य क्यों नहीं रचा जा रहा । इसके पीछे
सबसे बड़ा कारण हमारी कूप मंडूकता ही है सो
हमें इससे उबरना आवश्यक है ।
आपका
शरद कोकास
बिना पढ़े ज्ञान चक्षु खुल ही नहीं सकते । सार्थक लेख ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आभा जी
हटाएंअच्छा लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद निधी जी
हटाएंअच्छा लेख औऱ जानकारी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद प्रियंका
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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