शनिवार, 10 जुलाई 2021

6.दिमाग को कभी दिल के रूबरू करके देखिये.


समय
 के साये में एक सम्माननीय आगन्तुक ने एक टिप्पणी में क्या खू़ब बातकही हैएक खू़बसूरत अंदाज़ में.....

दिमाग को कभी दिल के रूबरू करके देखिये.. फिर कहिए..
समय ने सोचा चलो आज इस बेहद प्रचलित जुमले पर ही बात की जाए।
अक्सर इसका कई विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है। दिल की सुनों....दिल से सोचो...दिमाग़ और दिल के बीच ऊंहापोह....दिमाग़ कुछ और कह रहा थादिल कुछ और....मैं तो अपने दिल की सुनता हूं...दिल को दिमाग़ पर हावी मत होने दो....दिल अक्सर सही कहता हैपर हम दिमाग़ लगा लेते हैं...बगैरा..बगैरा..
इस तरह दिल और दिमाग़ दो प्रतिद्वन्दी वस्तुगत बिंबोंअलग-अलग मानसिक क्रिया करने वाले दो ध्रुवो के रूप में उभरते हैंजोहमारे अस्तित्व से बावस्ता हैं।

चलिए देखते हैंवस्तुगतता क्या है।
अधिकतर जानते हैं कि शारीरिक संरचना के बारे में मानवजाति के उपलब्ध ग्यानयानि शरीर-क्रिया विग्यान के अनुसार दिमाग़ यानि मस्तिष्क सारी संवेदनाओं औरविचारों का केन्द्र है जबकि दिल का कार्य रक्त-संचार हेतु आवश्यक दबाब पैदा करना है,यह एक पंप मात्र है जिसकी वज़ह से शरीर की सारी कोशिकाओं और मस्तिष्क को भीरक्त के जरिए आवश्यक पदार्थों की आपूर्ति होती है। 

ऐसा नहीं है कि इन जुमलों को प्रयोग करने वाले इस तथ्य को नहीं जानतेफिर भीइनका प्रयोग होता है।
एक तो भाषागत आदतों के कारणदूसरा कहीं ना कहीं समझ में यह बात पैठी होती हैकि मनुष्य के मानस में भावनाओं और तार्किक भौतिक समझ के वाकई में दोअलग-अलग ध्रुव हैं।

अक्सर ’दिल के हिसाब से’ का मतलब होताहैप्राथमिक रूप से मनुष्य के दिमाग़ में जोप्रतिक्रिया या इच्छा उत्पन्न हुई है उसकेहिसाब से या अपनी विवेकहीन भावनाओं केहिसाब से मनुष्य का क्रियाशील होना।जबकि ’दिमाग के हिसाब से’ का मतलबहोता हैमनुष्य का प्राप्त संवेदनों औरसूचनाओं का समझ और विवेक के स्तर केअनुसार विश्लेषण कर लाभ-हानि के हिसाबसे या आदर्शों के सापेक्ष नाप-तौल करक्रियाशील होना।
कोईकोई ऐसे सोचता है कि प्राथमिकप्रतिक्रिया या इच्छा शुद्ध होती हैदिल कीआवाज़ होती है अतएव सही होती हैजबकिदिमाग़ लगाकर हम अपनी क्रियाशीलता कोस्वार्थी बना लेते हैं। कुछ-कुछ ऐसे भी सोचतेहैं कि दिमाग़ से नाप-तौल कर ही कार्यसंपन्न करने चाहिए।

क्या सचमुच ही प्राथमिक प्रतिक्रिया या इच्छा अर्थात दिल की आवाज़ शुद्ध और सही होती है?
चलिए देखते हैं।
आप जानते हैं कि एक ही वस्तुगत बिंब अलग-अलग मनुष्यों में अलग-अलग भावना का संचार करता है। एक ही चीज़ अगर कुछमनुष्यों में तृष्णा का कारण बनती है तो कुछ मनुष्यों में वितृष्णा का कारण बनती है जैसे कि शराबमांस आदि। जाहिर है ऐसे मेंइनके सापेक्ष क्रियाशीलता भी अलग-अलग होगी। किसी स्त्री को देखकर पुरूष मन मेंनरमादा के अंतर्संबंधों के सापेक्ष उसे पाने कीपैदा हुई प्राथमिक प्रतिक्रिया या इच्छा अर्थात दिल की आवाज़ को सामाजिक आदर्शों के सापेक्ष कैसे शुद्ध और सही कहा जा सकताहैऐसे ही कई और चीज़ों पर भी सोचा जा सकता है।

दरअसलएक जीव होने के नाते हर मनुष्य अपनी जिजीविषा हेतु बेहद स्वार्थीप्रवृत्तियों और प्राथमिक प्रतिक्रियाओं या इच्छाओं का प्रदर्शन करता है या करनाचाहता हैपरंतु एक सामाजिक प्राणी होने के विवेक से संपन्नता और आदर्शप्रतिमानों की समझ उसे सही दिशा दिखाती है और उसके व्यवहार को नियमित औरनियंत्रित करती है। अब हो यह रहा है कि आज की व्यवस्था द्वारा प्रचलित औरस्थापित मूल्यों में सामाजिकता गायब हो रही है और व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति केहितसाधन को प्रतिष्ठित किया जा रहा है अतएव जब सामान्य स्तर का मनुष्य जबदिमाग़ लगाता है तो नापतौल कर अपनी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति हेतु प्रवृत होता है।

इसीलिए यह विचार पैदा होता है कि वह यदि अपने दिल की आवाज़ पर जो कि साधारणतयाः अपने विकास हेतु समाज पर निर्भर होने के कारण कुछ-कुछ सामाजिक मूल्यों से संतृप्त होती हैके हिसाब से कार्य करे तो शायद ज़्यादा बेहतररहेगा।
समय के उक्त सम्माननीय आगन्तुक की टिप्पणी का शायद यही मतलब है।
जाहिर हैजिस मनुष्य का ग्यान और समझ का स्तर अपेक्षाकृत निचले स्तर पर होता हैउसके व्यवहार का स्तर इन प्राथमिकप्रतिक्रियाओं या इच्छाओं या दिल की आवाज़ पर ज़्यादा निर्भर करता है और जो अपने ग्यान और समझ के स्तर को निरंतरपरिष्कृत करते एवं विवेक को ज़्यादा तार्किक बनाते जाते हैंउनके व्यवहार का स्तर भी तदअनुसार ही ज़्यादा संयमित,विवेकसंगत और सामाजिक होता जाता है।

समय 

प्रस्तुति : शरद कोकास 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें