मिलने पर बहुत से आलोचक बहुत बातें करते हैं -बहुत आवेग से ,उत्साह से,वे बातेंजो उनके ह्रदय से निकलती होती हैं,उनके आलोचनागत मंतव्यों से बहुत दूर जा पडती हैं ,कभी- कभी वे उन बातों के विरुद्ध भी पाई जाती है ,बहुत बार वे उनके मंतव्यों से अधिक मार्मिक, अधिक दृष्टिमय और अधिक यथार्थ भी होती हैं । इसलिए की बात करते समय वह आलोचक "नाट्य" नही कर रहा है, वरन अपने व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं का सहज उदघाटन करता जा रहा है। लेकिन जब वह लेखनी चलाने लगता है ,या मंच पर जाता है तब वह आलोचक का मुकुट पहनकर , सत्य का राजदंड स्वीकार कर ,भाषण देने लगता है -पिटी-पिटाई ,घिसी -घिसाई शब्दावली में और ऐसे नाटकीय स्वर में जो उसने याद करके (दिमाग के तरकस में ) रख छोडे है ।
(विष्णुचंद्र शर्मा द्वारा संपादित "मुक्तिबोध की आत्मकथा " से साभार)
हिन्दी साहित्य के सभी दिवंगत महान आलोचकों के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उनके विचारों को आप तक पहुंचाने हेतु कृतसंकल्प
जवाब देंहटाएंआपके इस ब्लौग के लिये कबसे समय निकालने को उत्सुक हो रखा था मैं। आज समय मिला है तो शुरु से ही शुरु कर रहा हूँ। वैसे भी इस "आलोचक" के प्रथम पृष्ठ के लिये इससे ज्यादा सार्थक पोस्ट और कोई नहीं हो सकती थी।
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