अब नया खून मे पूरा समय दे रहा हूँ. अखबार में काम करते हुए मेरी चिंतापूर्ण उद्विग्नता बढी है व्यंगकार हरिशंकर परसाई,चित्रकार भाऊ समर्थ और शरद कोठारी अक्सर मिला करते हैं.जिस समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता खरीदी और बेची जा सकती है उस समाज में सरकार और बडे सेठ को, मुझे या गरीब देशों को खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं,इसीलिये पश्चिमी देश उन देशों को भी स्वतंत्र (फ्री) कहते हैं जहाँ पूरी सैनिक तानाशाही है. वे ऐसा क्यों करते हैं? वे इसलिये ऐसा करते हैं कि उन देशों में खरीदने और खरीदे जाने, बेचने और बेचे जाने की, स्वतंत्रता है. वही बुनियादी उसूल हमारे यहाँ भी आज़ादी के बाद अनिवार्य प्राकृतिक नियम की भाँति चला हुआ है.
(विष्णुचन्द्र शर्मा की पुस्तक 'मुक्तिबोध की आत्मकथा से साभार)
शायद आज के भारत के लिये मुक्तिबोध का ये कथन उतना सामयिक न रह गया हो कि "वही बुनियादी उसूल हमारे यहाँ भी आज़ादी के बाद अनिवार्य प्राकृतिक नियम की भाँति चला हुआ है"...खरीदने और बेचने की कथित स्वतंत्रता बस उन्हीं लोगों के पास रह गयी है जिनके पास पैसा है, पावर है।
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