शनिवार, 22 जुलाई 2017

रचना संवाद - 3- रचना और रचनाकार की मन:स्थिति व अन्तःप्रेरणा


लिखते समय हमारी मनस्थिति कैसी होनी चाहिए 

कई बार ऐसा होता है कि हम कुछ भी लिखने की मन:स्थिति में नहीं होते । विचार हमारे इर्द-गिर्द मँडराते रहते हैं, भाव हमे घेरे रहते हैं लेकिन शब्द नहीं सूझते । कई बार ऐसा भी होता है लिखने लायक तमाम परिस्थितियाँ उपस्थित रहती हैं और एक पंक्ति भी लिखी नहीं जाती । फिर कई बार इसके विपरीत भी होता है । वस्तुत: यह सब कुछ हमारी मन:स्थिति पर निर्भर नहीं करता है । अन्य कई परिस्थितियां भी होती हैं कई बार हम इतना सोच लेते हैं कि मन ही मन रचना बुन डालते हैं लेकिन वह कागज़ पर नहीं आ पाती । कभी कभी कोई पंक्ति बार बार मन में आती है लेकिन हमें ऐसा नहीं लगता कि वह रचना हो सकती है । अक्सर रचनाकार कहते हुए पाये जाते हैं कि बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं या आजकल लिखने का मन नहीं करता । ऐसा क्यों होता है ? हम आज इसका विश्लेषण करेंगे

दरअसल इसका कोई सीधा या बना बनाया उत्तर नहीं है । मेरी लम्बी कविता पुरातत्ववेत्ता जब मैने लिखने की शुरुआत की तब इस बात का तनिक भी खयाल नहीं था कि यह रचना इतनी लम्बी जायेगी । वह विचार भी अचानक ही प्रस्फुटित हुआ । उन दिनो मै बैंक में नौकरी करता था । बीच की छुट्टी में बाहर निकला तो अचानक कुछ पंक्तियाँ कुलबुलाने लगीं । न उस वक्त मेरे पास कागज़ था न कलम । मैने पान की दुकान वाले से कागज़ व कलम माँगा तो उसने एक सिगरेट का रैपर पकड़ा दिया और उस पर मैने सबसे पहले यह पंक्तियाँ लिखीं “ वे श्रुतियों पर इतिहास नहीं रचते / वे आस्थाओं पर इतिहास नहीं रचते / इतिहास में शामिल होने की ज़िद भी उनमें नहीं है । इसके बाद वह कविता धीरे धीरे बढ़ती गई और इतनी बढ़ी कि पन्द्रह सौ पन्क्तियों के बाद ही समाप्त हुई । ज्ञानरंजन जी ने जब इसे ‘पहल ‘ के लिए स्वीकृत किया था तब यह रचना मात्र 20 पेज की थी लेकिन उसके बाद भी विचार आते गए और 33 पेज मैंने और लिखे तात्पर्य यह कि विचार कब कागज़ पर आ जायेगा पता नहीं । कई बार ऐसा भी होता है कि हम कोई और कविता लिख रहे होते हैं और उसी बीच कोई नई कविता जन्म  ले लेती है । पहले की कविता धरी की धरी रह जाती है ।

मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियाँ है –

विचार आते हैं

लिखते समय नहीं
पत्थर ढोते वक़्त
पीठ पर उठाते वक़्त बोझ
साँप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त

कई बार ऐसा भी होता है कि हम कोई अच्छी कविता पढ़ लेते हैं तो हमारी लिखने की मन:स्थिति बन जाती है । भगवत रावत सर कहते थे कि आप दस अच्छी कवितायेँ पढो तो एक कविता आपके भीतर भी जन्म ले सकती है ऐसा इसलिये होता है कि उस रचना को पढ़ते हुए हम कहीं न कहीं रचनाकार के अनुभव संसार से गुजरते हैं । और हमारे सामने एक ऐसा संसार होता है जो हमारे संसार से कहीं न कहीं मिलता है यही हमें एक रचना के लिये प्रेरित करता है । इसीलिये हर रचनाकार के लिये पढ़ना आवश्यक माना गया है । कई बार हम अन्य भाषाओं में लिखा साहित्य पढ़ते है अथवा उसका अनुवाद करते हैं यह अनुवाद भी हमें कई बार लिखने के लिये प्रेरित करता है ।यह भी ज़रूरी नहीं कि कविता लिखने के लिए हम केवल कविता ही पढ़ें , विज्ञान और भौतिकशास्त्र और गणित पढ़ते हुए भी कविता का जन्म हो सकता है

रचनाकार की मनस्थिति पर अपनी रचनाप्रक्रिया को लेकर बहुत सारे लेखकों ने अनेक बातें लिखी हैं प्रसिद्ध लेखक ओरहान पामुक नें “ *मैं क्यों लिखता हूँ ?* ” इस प्रश्न का उत्तर देते हुए रचना की मनस्थिति पर बहुत सारे बयान दिये हैं । आईये देखते है ओरहान पामुक  “मैं क्यों लिखता हूँ “ के उत्तर में क्या लिखते हैं

मैं लिखता हूँ क्योकि लिखना मेरी एक आन्तरिक आवश्यकता है |
मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं वे सारे साधारण कामकाज नहीं कर सकता जो अन्य दूसरे लोग कर सकते हैं |
मैं लिखता हूँ क्योंकि  मैं आप सबसे नाराज हूँ हर एक से नाराज़ हूँ |
मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं इसी तरह वास्तविक जीवन में बदलाव लाने में अपनी हिस्सेदारी कर सकता हूँ |
मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे कागज कलम और स्याही की गन्ध पसंद है |
मैं लिखता हूँ क्योंकि  अन्य किसी भी चीज़ से ज़्यादा मुझे साहित्य पर विश्वास है |
मैं लिखता हूँ क्योंकि यह एक आदत है,एक जुनून है |
मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं विस्मृत किये जाने से डरता हूँ ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं उस यश और अभिरुचि को चाहता हूँ जो लिखने से मिलती है। मैं अकेला होने के लिये लिखता हूँ ।
           

मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे आशा है कि शायद इस तरह से मैं समझ सकूँगा कि मै आप सबसे,हर एक से ,बहुत,बहुत ज़्यादा नाराज क्यों हूँ ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे पढें ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि जब एक बार कुछ लिखना शुरु कर देता हूँ तो उसे पूरा कर देना चाहता हूँ ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि हर कोई मुझसे लिखने की अपेक्षा करता है ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे पुस्तकालयों की अमरता मे एक नादान सा विश्वास है और मेरी उन पुस्तकों में जो आलमारी में रखी हुई हैं ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि जीवन की सुन्दरताओं और वैभव को शब्दों में रूपायित करना एक उत्तेजक अनुभव है ।
मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं कभी खुश नहीं रह सका ,मैं खुश होने के लिये लिखता हूँ ।

इस तरह अनेक लोग हैं जिन्हे रचना के लिये एक विशेष मन:स्थिति की आवश्यकता होती है । कुछ लोग किसी विशेष तरह के कागज़ पर विशेष स्याही से लिखते हैं । कुछ लोग कागज़ पर लिखने की बजाय सीधे कम्प्यूटर पर लिखते हैं । कुछ लोग चाय या सिगरेट के बगैर नहीं लिख सकते । कुछ लोग दुख में नहीं लिख सकते तो कुछ लोग सुख में नहीं लिख सकते  । कुछ लोगों को लिखने के लिये भीड़ की ज़रूरत होती है तो कुछ लोग एकांत पसन्द करते हैं । कुछ लोग केवल दिन के उजाले में लिख सकते हैं तो किसी को लिखने के लिए रात्रि की निस्तब्धता की आवश्यकता होती है

मित्रों मेरी राय यह है कि जो सच्चा और ईमानदार लेखक होता है उसे लिखने के लिए किसी  बहाने की ज़रूरत नहीं होती ।लेखन का सीधा सम्बन्ध आपके अवचेतन की स्थिति से है इसलिए कि लिखने की समस्त सामग्री आपके अवचेतन में ही उपस्थित होती है इसलिए अपने अवचेतन को साधना ही सबसे ज्यादा ज़रूरी होता है । बाक़ी सब भौतिक स्थितियां और परिस्थितियां होती हैं । हालाँकि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन उसे साधा तो जा ही सकता है शायद इसीलिए मनीषियों ने लेखन को साधना भी कहा है । भौतिक परिस्थितियों की बात पर मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की प्रसिद्ध कविता याद आती है

अगर तुम्हारे घर के एक कमरे में लाश पड़ी हो
तो क्या तुम गा सकते हो
अगर तुम्हारे घर के किसी कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम प्रार्थना कर सकते हो   
  
वस्तुतः लेखन सिर्फ भौतिक परिस्थिति या मनस्थिति से ही संभव नहीं है ,यह दोनों आपकी संवेदना को किस तरह झकझोरती हैं यह इस पर निर्भर करता है आप किस मनस्थिति में लिखते हैं और लिखने के लिए आपको कौनसी बात प्रेरित करती है यह तो आप ही बताएँगे  

आपका – शरद कोकास


  
 

   

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