दरअसल, वर्तमान इतना उथल-पुथल भरा है कि मैं चश्मदीद होने का लोभ
संवरण नहीं कर पाता।
चलिए, फिर से बात शुरू करते हैं।
मैं समय, आपको किस्से-कहानियां सुनाते हुए यह बताना चाहता था कि
लोग मुझ तक क्यों नहीं पहुंच पाते।
तो हे मानव श्रेष्ठों, कहानी आगे बढ़ती है.....
मनुष्य ने अपने लाखों वर्षों के एतिहासिक क्रमिक उदविकास
के दौरान अपनी आज की लचीली और उन्नत शरीर संरचना को पाया है। शरीर के विभिन्न
अंगों का नयी-नयी परिस्थितियों और कार्यों के लिए संचालन, संचालन क्रियाओं का दिमाग़ के साथ
समन्वयन और आपसी अनुक्रिया, इन सबका उत्पाद है अत्यंत परिष्कृत मस्तिष्क संगठन और
शारीरिक संरचना। यह सब कपि-मानव और उसके हाथ द्वारा किए गए श्रम का परिणाम है। श्रम
का मतलब है, मनुष्य
द्वारा अपने किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रकृति में किया जा रहा सचेत परिवर्तन।
मनुष्य अपने संचित अनुभवों को आगे वाली पीढी़ को देता था
और इस प्रकार आने वाली पीढ़ियां उनका अतिक्रमण कर, अपने अनुभवों को और समृद्ध करती जाती थी। मनुष्य का ज्ञान
समृद्ध होता गया, भाषा और
लिपी ने इस संचित ज्ञान का आने वाली पीढ़ियों तक का संचरण और आसान व सटीक बना दिया।
क्रमिक विकास की यह उर्ध्वगामी प्रक्रिया निरन्तर चलती रही, मनुष्य के क्रियाकलापों और अनुभवों
के परिस्थितिजन्य क्षेत्र निरन्तर विस्तृत होते गये।
मनुष्य जाति बिखर रही थी, विकास की प्रक्रिया बिखर रही थी, इस ग्रह की भौगोलिक परिस्थितियां बदल
रही थी। शनैःशनैः मानव जाति का यह बिखराव एक दूसरे से काफ़ी विलगित हो गया और
पृथ्वी के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग विकास श्रृंखलाएं स्थापित हो गयी।
परिस्थितिजन्य संघर्षों और आवश्यकताओं के अनुरूप, विकास की यह प्रक्रिया कहीं लगभग स्थिर हो गयी, कहीं धीमी, तो कहीं गुणात्मक रूप से काफ़ी तेज़ हो
गयी। यह स्थिति आज भी बनी हुई है, और मनुष्य अपने नीले ग्रह के अलग-अलग स्थानों पर मानव
जाति के क्रमिक विकास की अलग-अलग अवस्थाओं की समानान्तर उपस्थिति पाते हैं। कहीं
कहीं तो यह बिल्कुल आदिम अवस्थाओं में हैं।
कुलमिलाकर लाबलुब्बोआब यह है कि मनुष्य को एक सुसंगठित
मस्तिष्क और परिष्कृत शारीरिक संरचना, गुणसूत्रीय संरक्षण के जरिए विरासत में मिलती है, जिसमें भरपूर विकास की असीम भौतिक
संभावनाएं मौजूद होती हैं। परन्तु इस परिष्कृत शारीरिक संरचना और सुसंगठित
मस्तिष्क संरचना का क्रियान्वयन और नियमन उसे विरासत में नहीं मिलता, इस हेतु वह विकास की एक निश्चित
प्रक्रिया से गुजरता है जहां वह परिवेशी समाज की सहायता से अपनी शारीरिक और मानसिक
क्रियाकलापों को श्रृंखलाबद्ध तरीके से नियमित और परिष्कृत करना सीखता है, और इसे इस तरह देखना काफ़ी रोमांचक
रहेगा कि इस प्रक्रिया के दौरान, यानि पैदा होने से लेकर विकसित युवा होने तक, मनुष्य अपने जीवन में मानवजाति के
पूरे इतिहास को छोटे रूप में क्रमबद्ध तरीके से दोहराता है।
समय
प्रस्तुति : शरद कोकास
बहुत ही सुन्दर एवं ज्ञानवर्धक ।। धन्यवाद ।।।।
जवाब देंहटाएं🙏बहुत बहुत धन्यवाद 🙏
हटाएंकुछ तो सार्थक मिला पढ़ने को ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका🙏
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