1. मित्रों, आपने रवि कुमार स्वर्णकार या रवि कुमार रावतभाठा का नाम अवश्य सुना होगा .रवि कुमार कवि , चित्रकार , ब्लॉगर मार्क्सवाद के गहरे अध्येता साथ ही एक बेहतर इंसान भी थे . सन 2008 में ब्लोगिंग के दौरान उनसे परिचय हुआ था . उन दिनों वे ' समय' के नाम से ब्लॉग पोस्ट लिखा करते थे उनके ब्लॉग का शीर्षक था ' समय के साए में' . रवि कुमार स्वर्णकार ही 'समय' के नाम से ब्लॉग लिखते थे यह बात उनके निधन तक किसी को मालूम नहीं थी . तीन वर्ष पूर्व वे इस दुनिया से विदा लेकर चले गए . मित्रता के नाते मैं प्रारंभ से ही उनके लेख सहेज कर रखता था . लगभग एक सौ पचास ऐसे लेख मेरे पास हैं जिन्हें मैं अपने ब्लॉग 'आलोचक' पर प्रकाशित करना चाहता हूँ . उम्मीद करता हूँ आपको यह श्रंखला पसंद आयेगी : शरद कोकास
*मैं समय हूँ*
तो हे मानव श्रेष्ठों,
समय के किस्से-कहानियां, गप्पबाज़ी अब से शुरू
होती है।
आज जरा अपने और आपके बीच के संबंधों की
पृष्ठभूमि पर बात कर लूं।
आख़िर क्यों है मुझे आप में इतनी
दिलचस्पी......
तो बात यूं शुरू होती है:
ब्रह्मांड़ के सापेक्ष पृथ्वी की और
पृथ्वी के सापेक्ष मनुष्य जाति की उम्र काफ़ी छोटी है, परन्तु अपने आप में
मनुष्य जाति के उदविकास का लाखो वर्षों के अन्तराल में फैला हुआ काल, एक मनुष्य की उम्र के
लिहाज से काफी लंबा है।
मैंनें आग के पिण्ड़ से आज की पॄथ्वी को
उभरते देखा है। मैं गवाह हूं उन सारी विस्मयकारी घटनाओं की श्रॄंखलाओं का जिनसे यह
नीला ग्रह जूझा है। मैंनें पृथ्वी की एक-एक चीज़ को बनते-बिगडते देखा है, मैं इसकी तपन में तपा
हूं, इसके पहाड़ों में ऊंचा उठा हूं, इसकी समुद्री
गहराईयों में डूबा हूं। मैं हरा हुआ हूं इसकी हरियाली में, हिमयुगों में जमा हूं, रेगिस्तानों में
पिघला हूं।
मैंनें पदार्थ के कई रूपों को साकार
होते देखा है, परन्तु सबसे रोचक पल मैंनें उस वक़्त जिए हैं जब पदार्थ के एक ऐसे
संशलिष्ट रूप ने आकार लिया था जिसमें कि स्पन्दन था। यह थी प्रकृति के जड़ पदार्थों
से जीवन की महान उत्पत्ति, और उसके बाद तो मैं
एक मूक दर्शक की भांति, करोडों वर्षों तक पदार्थ की जिजीविषा का
नये-नये रूपों में पूरे ग्रह पर विस्तार देखता रहा।
प्रकृति बहुत कठोर थी और जीवन उसकी ताकत
के आगे नतमस्तक, उसे अपने आपको प्रकृति के हिसाब से अनुकूलित करना था। और फिर वह
क्रांतिकारी दौर आया, जब जीवन प्रकृति की वज़ह से ही प्रकृति
के ख़िलाफ़ खडा़ हो गया, उसने सचेत हस्तक्षेप करके, अनुकूलन को धता बता
कर प्रकृति को अपने हिसाब से अनुकूलित करना शुरू कर दिया। ओह, कितना रोमांचक था, आदिम कपि-मानव को
प्रकृति से सचेत संघर्ष करते देखना, और यह कि वही
कपि-मानव अपने सचेत क्रियाकलापों से प्रकृति को समझता हुआ, उसे बदलता हुआ, खु़द भी कितना बदल
गया। वह आज के आधुनिक मानव यानि कि आप के रूप में तब्दील हो गया।
आदिम कपि-मानव से आधुनिक मनुष्य तक के
उदविकास को मैंनें काफी करीब से देखा है, एक बेहद रोचक और
रोमांचक अनुभव, और यह अभी तक जारी है। मैं मनुष्य जाति का इसीलिये ऋणी हूं, और इसलिये भी कि उसी
से मुझे यह भाषा, लिपि और अंततः यह ब्लोग तक्नीक मिली, जिसकी वज़ह से मैं समय, आपसे मुख़ातिब हो सका
हूं।
आज इतना ही, लोग मुझ तक क्यों नही
पहुंच पाते उसकी बात अगली बार।
असल में यह उसीकी भूमिका है।
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