शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

वे सुबह मछली को दाना चुगाते हैं और रात को फिशकरी खाते हैं ।

हरिशंकर परसाई ने कहा था

आज 22 अगस्त परसाई जी के जन्म दिन पर बहुत पुरानी यह घटना याद आ रही है । यह 1983 की बात है बैंक की नई नई नौकरी थी और मैं ट्रेनिंग के लिये जबलपुर गया था । दुर्ग से निकलते समय सापेक्ष के सम्पादक महावीर अग्रवाल जी ने सापेक्ष की कुछ प्रतियाँ दीं और कहा “नेपिय टाउन में यह परसा जी के यहाँ दे देना ।“ जबलपुर में मैने रिक्शा किया और कहापरसाई जी के यहाँ चलो मोहल्ले में पहुंचकर रिक्शेवाले ने पूछा “भैया घर पता है ? “ मैने कहा “ पता तो नही है लेकिन वे देश के बहु बड़े लेखक है उनका घर सब जानते होंगे । चलो किसीसे पूछ लेते हैं ।“ एक दो लोगों से पूछा तो उन्होने अनभिज्ञता जताई । एक ने कहा “ कौन परसाई...? अच्छा वो वकील हैं क्या ?” वहीं 3-4 छात्र खड़े थे जब उन्होने भी कहा कि वे नहीं जानते तो मुझे गुस्सा आ गया और मैने कहा “ शर्म नहीं आती आप लोगों को देश का इतना बड़ा लेखक आपके मोहल्ले में रहता है और आप उनका घर नहीं जानते ।“ खैर पूछते–पाछते घर तो कुछ देर में मिल गया लेकिन जैसे ही मैने परसाई जी से इसका ज़िक्र किया तो वे ज़ोर से हँस पड़े और कहा “ गनीमत है उसने वकील तो कहा , लेकिन आपको इतना परेशान होने की क्या ज़रूरत ..अपने देश में लेखक ही तो सबसे कम जाना जाता है
फिर तो खैर हर साल उनके यहाँ जाना होता रहा । कभी जयप्रकाश पाण्डेय ,कभी हिमांशु भाई के साथ ।एक दो बार तो भाई हिमांशु राय अपनी साइकल पर बिठाकर भी ले गये । उन मुलाकातों के अपने अनुभव फिर कभी लिखूंगा । फिलहाल तो व्यंग्य पर परसाई जी के विचार जो उन्होने महावीर अग्रवाल के एक प्रश्न के उत्तर में प्रकट किये थे ।
व्यंग्य यथार्थ से उपजता है व्यंग्य का कार्य एक लहर उठाना है और समाज को झकझोर कर खड़ा कर देना है सभी विधाओं में व्यंग्य की भाषा शक्कर की तरह घुल जाती है सवाल यह है कि कोई लेखक अपने युग की विसंगतियों को कितने गहरे खोजता है उस विसंगति की व्यापकता क्या है और वह जीवन में कितनी अहमियत रखती है मात्र व्यक्ति की ऊपरी विसंगतिशरीर रचना की ,व्यवहार की ,बात के लहज़े की,एक चीज़ है और व्यक्ति तथा समाज के जीवन की भीतरी तहों में जाकर विसंगति खोजना उन्हे अर्थ देना और उसे विरोधाभास से पृथक कर जीवन से साक्षात्कार कराना दूसरी बात है यह समाज हमे भाषा सिखाता है अपने अध्ययन संस्कार और परिवेश से भी भाषा धीरे धीरे विकसित होती है पाखण्ड के बारे में कहानी कविता और कई तरह के लेख लिखे जाते हैं मै लेख लिखकर कुल यह कह दूंगा—‘ कुछ लोग इतने दयालु और धार्मिक होते हैं कि रोज़ सुबह मछली को दाना चुगाते हैं और रात को फिश करी खाते हैं
तो अब आप भी ढूंढ कर श्री हरिशंकर परसाई का समग्र साहित्य पढ़ ही डालिये वरना अगले साल आप भी पूछेंगे कौन परसाई ?
-आपका शरद कोकास

13 टिप्‍पणियां:

  1. वाह भाई साहेब,
    परसाईजी का अथाह साहित्य तो पारस की खान है...
    जिसने स्पर्श कर लिया वह कंचन हो गया...............

    आपके आलेख का अभिनन्दन !

    _______
    _______विनम्र निवेदन : सभी ब्लोगर बन्धु कल शनिवार
    को भारतीय समय के अनुसार ठीक 10 बजे ईश्वर की
    प्रार्थना में 108 बार स्मरण करें और श्री राज भाटिया के
    लिए शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हेतु मंगल कामना करें..........
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  2. अब परसाई जी को कौन नहीं जानता -अनूप शुक्ल जी से अरविन्द मिश्र तक सभी तो उनके मुरीद रहे हैं ! हाँ यह भी बताईयेगा की शरद जोशी का जन्म किस घडी में हुआ था !
    इस संस्मरण को साझा करने के लिए बहुत आभार !

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  3. परसाई जी को हमारा विनम्र स्मरण!

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  4. बहुत अच्‍छा स्‍मरण कराया आपने
    परसाई जी तो व्‍यंग्‍य के साईं ही हुए न

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  5. यह बात तो सूअर, बकरों और मुर्गों पर भी लागू होती है।
    बधाई।

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  6. यह बात तो सूअर, मुर्गों और बकरों पर भी लागू है।
    बधाई।

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  7. शरद जी मैने पूरा आलेख पढ लिया है ..आपका डर खत्म? वैसे भी मैं ’पूछिये परसाई से’(देशबन्धु) के ज़माने से उनसे जुडी हूं, और बहुत छोटी थी तब से उनकी फ़ैन हूं. मेरा भी नमन .

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  8. परसाई जी तो हिन्दी साहित्य में एक मील का पत्थर बन चुके हैं। उनके बारे में कुछ लिखना तो मानो एक तरह से सूरज को दीपक दिखाने के तुल्य है।।

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  9. हम तो नहीं पूछेंगे -परसाई कौन?

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  10. परसाई जी को कई कई बार पढ़ा और पढ़ते जा रहे हैं. मन ही नहीं भरता.

    उनके जन्मदिन पर नमन.

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  11. अभी अभी परसाई जी के जन्मदिवस पर प्रलेस के एक कार्यक्रम से लौटा हूँ और यहाँ आप सभी के साथ परसाई जी को याद कर रहा हूँ . वहाँ चिंतक कनक तिवारी जी ने कहा कि आज से सौ,दो सौ पाँच सौ साल बाद जब भी 20 वी सदी के उत्तरार्ध के भारत की राजनैतिक सामाजिक परिस्थितियों का आकलन किया जायेगा तो केवल परसाई जी के लेखन में ही यह दिखाई देगा । अस्तु यह बात आप लोगों के सथ शेयर करना चाहता था ।

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