महावीर अग्रवाल : पुरस्कारों का रचनाकारों और आलोचकों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

पुरस्कारों को लेकर यह प्रश्न भी उठाये जाने चाहिये कि उनका पैसा कहाँ से आता है ? वे जिनकी कथित ‘ स्मृति ‘ में दिये जा रहे हैं वे स्मृति-योग्य हैं भी या नहीं ? साहित्य से उनका क्या लेना-देना रहा है ? या उनके लिये पैसा और समारोह की व्यवस्था करने वाले स्वयं अपनी क्षुद्र स्मृति का प्रबन्धन कर रहे हैं ? निर्णायक- मंडल में साहित्यिक गुणवत्ता को लेकर जूझने वाले लोग हैं या नहीं ? क्या निर्णय प्रक्रिया पारदर्शक है और तत्सम्बन्धी नियमों का कठोर पालन किया जाता है ? यदि इनके उत्तर बेदाग हैं तो ऐसे पुरस्कार पुरस्कृत सृजेताओं की बहुत मदद कर सकते हैं । उनकी पुस्तकें प्रकाशित और चर्चित हो जाती हैं । पत्रिकायें और आलोचक उनकी ओर आकृष्ट होते हैं – यदि पहले से ही नहीं हुए तो । चूंकि अधिकांश छोटे किंतु अपेक्षाकृत प्रतिष्ठित पुरस्कार 40-45 या इस से कम उम्र के लेखक – लेखिकाओं के लिये है । इसलिये वे सही उम्र में सही स्वीकृति की मुहर जैसे बन जाते हैं । फिर यह भी स्वाभाविक है कि पुरस्कृत रचनाकार अपनी भावी रचनाओं को लेकर थोड़ी अधिक ज़िम्मेदारी महसूस करने लगें लेकिन यह भी देखा गया है कि कुछ छोटे-बड़े पुरस्कार प्राप्त करने के बाद कुछ साहित्यकारों में नाना प्रकार का पतन मिलने लगे ।
बहरहाल, मेरी मान्यता यह है कि अधिकांश पुरस्कार 50 या उससे कम आयु वाले लेखकों को ही दिये जाने चाहिये -60, 70, 80 की उम्र में लिये जाने वाले पुरस्कार यदि हास्यास्पद और निरर्थक नहीं तो करुणास्पद अवश्य लगने लगते हैं । रही बात आलोचकों को दिये जाने वाले पुरस्कारों की , तो वहाँ स्थिति कुछ चिंतनीय है । जब तक मैं देवीशंकर अवस्थी सम्मान निर्णायक-मंडल में रहा ,मैंने देखा कि पुरस्करणीय पुस्तक खोज पाना आसान नहीं था फिर यह कि अधिकांश आलोचना कविता और गल्प पर लिखी जा रही है और अन्य विधाओं पर समीक्षा का लगभग कोई अस्तित्व नहीं है । मुझे लगता है कि आलोचना के क्षेत्र में वर्ष की सर्वोत्तम समीक्षा, सर्वोत्तम निबन्ध ,सर्वोत्तम मोनोग्राफ, सर्वोत्तम शोध-प्रबन्ध और सर्वोत्तम पुस्तक पर सम्भव हो तो विधावार पुरस्कार दिये जाने चाहिये । शायद इससे हमारी व्यापकतर आलोचना का स्तर कुछ कम शोचनीय हो सके ।
इन विचारों पर आपके विचार सादर आमंत्रित हैं । कवि बोधिसत्व के विचार भी उनके ब्लॉग विनय पत्रिका में अवश्य पढ़ें साथ ही विमल कुमार का लेख ब्लॉग बना रहे बनारस पर पढ़ें ।- शरद कोकास
कोकस जी आपके बातों से सहमत हु
जवाब देंहटाएंजैसा कि विष्णु खरे जी के लेख में लिखा है कि अधिकतर पुरस्कार ‘मिलीभगत’ का परिणाम होते हैं - कारण चाहे जो भी हो। यह भी सही है कि अच्छे साहित्यकार का चयन भी कठिन होता है- खासकर इस खेमेबाज़ी के बाज़ार में:)
जवाब देंहटाएंयही सच है और होना भी चाहिए जब लेखनी बंद हो रही हो तब पुरस्कार देने का मतलब तो करुणा ही जताता है..
जवाब देंहटाएं@विनोद जी ,लेकिन क्या यह सही है कि ऐसे लोगों की पहचान आलोचक समय रह्ते न कर पायें और फिर इसे करुणा का नाम दें ?
जवाब देंहटाएंविष्णु खरे के रवैए को समझने के लिए इस ब्लाग पर इसके पहले की पोस्ट पर लगे आलोचकों के बारे में बच्चन सिंह को पढ़ना समीचीन होगा। विष्णु खरे झूठमूठ का विवाद खड़ा करने के लिए दूसरो ंको कटघरे में खड़ा करते रहते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ने ऐसे लोगों के बारे में कटु टिप्प्णी की है। जिसका आशय यह था कि जो ज्ञान को पचा नहीं पाते वो गलगल करते रहते हैं। खरे जी जहां रहें हैं पहले वहीं की जांच कर ली जाए उसके बाद दूसरे जगह की जांच की जाएगी। वो जिन पुरस्कार के निर्णायक मण्डलों में रहे हैं उसकी जांच कर ली जाए फिर उनके बयानो की विश्वसनियता बनेगी। नौ सौ चुहे खा कर बिल्ली कब तक हज को जाती रहेगी।
जवाब देंहटाएंशरद भी बहुत ही सटीक विषय चुना आपने, पुरुस्कारों की राजनीति ,ये मुहावरा शायद इन्हीं सब बातों को देख कर तो बना होगा...और दुख ज्यादा तब बढ जाता है कि इस कुचलन को सबसे ज्यादा हिंदी साहित्य में चलते देखते हैं...सार्थक लेख के लिये आभार
जवाब देंहटाएंशरद जी,
जवाब देंहटाएंसाहित्य पर तो लंपट ही हूं लेकिन राजनीति की ज़रूर कह सकता हूं...वहां तो मंत्री पद के रूप में असली पुरस्कार 60-70-80 साल के बांके जवानों को ही मिलते हैं...
जय हिंद...
पुरस्कार हमेशा से ही विवादित रहे हैं .अनेक उदाहरण भी हैं जहां मिलीभगत के चलते पुरस्कार दिये गये. ये चलन विभिन्न विधाओं में ज़ाहिर तौर पर जारी है, क्योंकि ऐसे किसी भी समारोह का कभी बहिष्कार किया ही नहीं गया. निर्णायकों ने जो घोषणा कर दी वही अन्तिम सत्य.निश्चित रूप से पुरस्कार युवावस्था में ही प्रदान किये जाने चाहिये.बुज़ुर्गावस्था में तो केवल दीर्घकालिक सेवाओं के लिये ही सम्मानित किया जाना चाहिये. कई पुरस्कार आमंत्रित पांडुलिपियों पर दिये जाते हैं. ऐसे में चयन का कार्य श्रम-साध्य है, साथ ही ऐसे चयन में पूरी पारदर्शिता भी कायम नहीं रह पाती.कई ऐसे लेखक जो पुरस्कार के योग्य हैं. जानकारी के अभाव में उनकी पांडुलिपि पहुंच ही नहीं पाती.
जवाब देंहटाएंhindi me sahityetar vishayon par likhne valon ka protsahan kyon nahi hona chahiye?
जवाब देंहटाएंरविन्द्र स्वप्निल प्रजापतिने कहा
जवाब देंहटाएंravindra swapnil prajapati to me
kavita eswariye or pryas dona hia hai ....